________________
१३२
सत्य हरिश्चन्द्र
रूखा
सूखा भोजन जैसा मिल जाए वैसा खाना, तुम वालक, हठ कर जाओ तो मुश्किल तुमको मनवाना !"
·
"माँ, मैं तो बस संग चलूंगा, यहाँ न बिल्कुल भी रहना, जो कुछ दोगी, खा लूंगा, इस ओर नहीं कुछ भी कहना !" बहुतेरा समझाया, रोहित ने न एक कहना माना, इतने में ही गर्जन करता, सुना ऋषीश्वर का ताना ।
"हरिश्चन्द्र, यह अभिनय कितनी देर चलेगा, बतलाओ, सूर्य शेष है एक घड़ी, बस आधा ऋण भी दिलवाओ ! " वृद्ध विप्र भी बोला -- "बेटी, अब मैं अधिक न ठहरूंगा, बड़ी देर हो चली, भला मैं कब तक संकट देखूंगा ?"
रोहित की यह दशा देखकर हाथ जोड़ बोली तारा, शून्य दृष्टि से लगी देखने, घूमा भूमण्डल सारा ! "पिता आपसे एक प्रार्थना, इसको भी संग चलने दें, कहो, करू क्या, नहीं मानता, बालक की हठ रहने दें !"
"बेटी, कहना ठीक तुम्हारा, पर यह तो इक भंभट है, बालक के पीछे माता को कितनी रहती खटपट है ? भोजन - पान आदि की संकट में ही समय गुजारोगी, गृह - सेवा के लिये कौन-सा समय भला तुम पाओगी ?
और दूसरे भोजन का भी प्रश्न सामने आता है, कौन गृहस्थ वृथा दो जन का भोजन खर्च निभाता है ?" ब्राह्मण की सुन अन्तिम वाणी, भूपति बोले मन ही मन, "सत्य, खूब जीभर कर जाँचो, यह जन, पीतल या कंचन ?
जो बालक शत शत लोगों के भोजन का आधार बना, हन्त ! आज उसका ही भोजन, दैव ! भयंकर भार बना !"
Jain Education International
-
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org