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सत्य हरिश्चन्द्र
ऋण का क्या है प्रश्न ? विपणि में मुझे बेच डालें भगवन् ! जैसे भी चाहें वैसे ही कर लीजे ऋण का शोधन ।” "कैसा वज्र लण्ठ है, अब भी नहीं राज मद नष्ट हुआ, कौड़ी तक भी नहीं पास में सभी तरह से भ्रष्ट हुआ । गर्वोद्ध र मस्तक को ऋण का भार अधस्तन करता है, पता नहीं, फिर भी यह किस पर आत्मविकत्थन करता है ? हरिश्चन्द्र ! कुछ सोच समझ, इक ओर मान-सम्मान खड़ा, और दूसरी ओर कर्ज का महापाप
सन्ताप कड़ा !
बोलो, इन दोनों मार्गों में वरण किसे तुम करते हो ? ऋण देते हो, या कि आज निजमुख से साफ मुकरते हो ?" " प्राणनाथ ! अब संकल्पों की उलझन में न अधिक उलझें ! व्यर्थ झिझक दें छोड़, अभी बस सकल समस्याएँ सुलझें !
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जीवन में, जिसकी न स्वप्न में कभी कल्पना भी आई, आज वही कर्तव्य मार्ग में स्पष्ट विकट घटना पाई । मेरी क्या चिन्ता है ? अब मैं कहाँ राजरानी, स्वामी ! आप बने मजदूर, आपकी मैं मजदूरनो, स्वामी ।
वृथा भूत के सुख स्वप्नों के परिदर्शन का अब क्या फल, जीवन वर्तमान है, उस पर चलते सभी सवल - निर्बल । भूल जाइये पिछली बातें, अब हम नाथ ! भिखारी हैं, शाप ग्रस्त, दुःख से पीड़ित साधारण नर नारी हैं ।
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अब न हमारे मिलने की इस जीवन में कुछ भी आशा, अब तो अग्रिम जीवन में ही संभव दर्शन की आशा !
यह दुख का है समय, किन्तु है रवि के रहते ऋण न चुका तो,
सत्य पूर्ति की शुभ- बेला, होगी सच की अवहेला । "
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