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सत्य हरिश्चन्द्र
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हमें पड़ी क्या, कुछ भी कर तू ले बस हम तो चलते हैं, किन्तु देखना, सत्य भंग के क्या परिणाम निकलते हैं ?” "प्रभो ! कहाँ जाते हैं ? पति को पाप पंक में मग्न किये, क्षमा कीजिए, दया कीजिए, जरा ठहरिए, शान्ति लिए ।
अभी आपका ऋण चुकता है, ऋण से तो इन्कार नहीं, प्रभो ! विपति में पड़कर मानव रह सकता है स्वस्थ कहीं ? किसी तरह से भी मैं अपने जीवित रहते पति - यश पर, लगने दूँगी नहीं स्वप्न में अपयश की रेखा अणुभर ।"
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"हरिश्चद्र क्या सोच रहे हो ? निज पत्नी के प्रति देखो, अबला होकर भी साहस की कैसी प्रखर प्रगति देखो ! सत्य - पूर्ति के लिये तुम्हारी तरह न बातें करती है, दासी बनती है, कष्टों में पड़कर तनिक न डरती है !
इस पर कुछ भी माँग नहीं है, पतिव्रता का जीवन हैं, एक तुम्हारे लिए समर्पित करती, अपना तन मन है ।" "प्रभो ! अयोध्या नगरी का वह स्वर्ग संदृश वैभव छोड़ा, जो कुछ आज्ञा हुई शीघ्र की पालन, तनिक न मुख मोड़ा । किन्तु, आज यह काण्ड भयंकर देख नहीं मैं सकता हूँ, तारा औ' दासी ! यह दारुण दुःख कैसे सह सकता हूँ ! नित्य हजारों दास-दासियाँ जिसकी सेवा करते थे, पुष्प सुगन्धित, मणि मुक्ता मृदु भोग श्रान्ति को हरते थे ।
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आज वही तारा क्या दासी बन कर कष्ट उठाएगी, यह असह्य है सूर्य वंश की कीर्ति नष्ट हो जाएगी ! आप बताएँ क्या यह संभव ? तारा दासी हो सकती है ? मैं जब तक हूँ विद्यमान्, यह दुर्घटना क्या हो सक्ती ?
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