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सत्य हरिश्चन्द्र
तारा के नेत्रों से अविरल बहती हन्त ! अश्रु · धारा, ज्वाला मुखी हृदय में फटता, शून्य विश्व मंडल सारा । रोहिताश्व निःस्तब्ध मूक - सा खड़ा कुटी के कोने में, साथ दे रहा है माता का, क्षुब्ध भयाकुल रोने में । विश्वामित्र द्वार पर इतने ही में आकर ललकारे, वज्रपात सम तीनों प्राणी काँप उठे भय के मारे । की न प्रतीक्षा एक दिवस को, ऐसा अविश्वास छाया, ओ निर्दय ! निष्करुण ! तपस्वी ! झट काशी दौड़ा आया।
हरिश्चन्द्र ने शीघ्र सँभलकर किया प्रणत विधि से वन्दन, कर फैला कर कौशिक ने झट किया घोर स्वर से गर्जन । 'रहने दे बस भक्ति - प्रत्रिया, वात दक्षिणा - ऋण की कर, डाल राज्य की झंझट, ऋषि को खूब सताया जी भरकर ।
सहन किया, बस अब न सहूँगा, अधिक सता कर क्या लेगा? मास-पूर्ति में कितने दिन हैं शेष ? दक्षिणा कब देगा ?" हरिश्चन्द्र क्या उत्तर देते ? नत मस्तक हो खड़े रहे, अन्तर् मन में व्याकुलता के भाव भयंकर अड़े रहे। हरिश्चन्द्र आजन्म गोद में सुख की सोने वाले थे, ऋण की विकट यंत्रणाओं के समझे नहीं कसाले थे ! किन्तु आज ही मर्म - मर्म में पीड़ा थी कितनी भीषण ! गिरे जा रहे थे पृथ्वी पर व्याकुलता बढ़ती क्षण - क्षण ।
"हाय आज है दर - दर का भिखमंगा भी अच्छा हम से, रूखा - सूखा खाता है, किन्तु मुक्त ऋण के गम से । अगर आज मैं ऋणी न होता तो इस पर्ण - कुटी में ही, कष्ट झेलकर भी आनन्दित रहता इस त्रिपुटी में ही।
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