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विश्वामित्र का तकाजा
त्यागी, योगी, सद्गुणी,
दुराग्रह के फेर में, बन
गंगा की बहती जल धारा, एक मिनिट को रुक जाये, संभव है, गतिमान पवन भी चन्द श्वास को थम जाये । कालचक्र निज निश्चित गति में, पर विश्राम नहीं लेता, पल, पलार्द्ध या क्षण, क्षणार्द्ध का भी अवकाश नहीं देता ।
वन्दनीय विद्वान्,
जाता शैतान !
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समय, किसी की कभी जगत में नहीं प्रतीक्षा करता है, एक बार निश्चित कर लीजे फिर आ स्वयं धमकता है | हरिश्चन्द्र ने ॠण शोधन के लिये न इक पैसा पाया, ऋण परिशोध अवधि का अन्तिम दिवस किंतु सहसा आया ।
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आज भूप की हृदय व्यथा ने
प्रलय काल
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उग्र रूप धारण कीना, सा अन्धकार चहुं ओर, हुआ दुर्भर जीना । बार बार दृढ़ होकर भूपति, निज मन को समझाता है, ऋण - चिन्ता का शल्य चित्त से तदपि न हटने पाता है ।
भोजन का है समय, पात्र में भोजन लाई है रानी, भूपति चिन्तातुर, क्या खाएँ, बड़ी विकट है हैरानी । खाने की क्या बात ? हाथ से छूने तक का काम नहीं, मन की व्याकुलता में मिलता भोजन में आनन्द कहीं ?
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