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सत्य हरिश्चन्द्र
"आप कौन हैं और यहाँ किस अभिप्राय से आए हैं ? वैभव - शाली जीवन पर क्यों दुःख के बादल छाए हैं ?"
"श्रमजीवी हम, एक शब्द में अपना अथ-इति का परिचय, प्राप्त जीविका करने आए, स्थान चाहिए, देंगे प्रिय ?" "बहुत ठोक है, जैसा जितना स्थान चाहिए ले लीजे, आप अतिथि हैं, अतः पूज्य, संकोच नहीं मन में कीजे !" "हम गरीब हैं, अस्तु विशिष्ट स्थान नहीं हमको लेना, छोटी - सी कुटिया बतला दें, और किराया क्या देना ?"
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"यहाँ किराया नहीं, धर्म - हित संचालित है सेवाश्रम, दीन जनों को मुफ्त स्थान औ' भोजन का चलता है क्रम।" "अगर किराया आप न लेंगे, और कहीं हम जाएँगे ! हम गरीब हैं, किन्तु धर्म का स्थान नहीं अपनाएँगे।" आप लोग हैं दीन, किराया कहो कहाँ से पाओगे ? इसका तो यह मतलब है, फिर भोजन - कष्ट उठाओगे ?" "जो भी हो धर्मार्थ स्थान, या भोजन हम न कभी लेंगे, मजदूरी कर भोजन लेंगे, और किराया दे देंगे।" "क्या रखा है इन बातों में, व्यर्थ दुराग्रह ठोक नहीं, दीन - दशा में, अहंकार का निभ सकता है तेज कहीं ?" "अहंकार की बात नहीं है, गृही - धर्म का पालन है, आदि जिनेश्वर ऋषभ देव का न्यायोचित अनुशा सन है। भिक्षा का अधिकारी मुनि है, सर्व परिग्रह का त्यागी, शक्त गृही यदि भिक्षा माँगे, समझो उसको दुर्भागी।
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