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"प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।"
-तत्वार्थ सूत्र, ७, ८ इसी प्रकार मूर्छा-आसक्ति ही परिग्रह है, केवल वस्तु नहीं-- "मूर्छा परिग्रहः।"
तत्त्वार्थ, ७, १२ नदीसंतरण आदि अपवाद की स्थिति तो अपने में एक विशेष महत्त्व रखती है। अपवाद - जन्य हिंसा को संयम की सीमा में ही माना गया है। इसके लिए यत्र-तत्र आगम साहित्य में 'नाइक्कम्मइ' पाठ आता है। जिसका अर्थ है-ऐसा करते हुए भिक्षु अपने संयम का अतिक्रमण नहीं करता है, अर्थात् संयम में ही रहता है। पिण्ड नियुक्ति में भी ऐसा ही उल्लेख है। वहाँ तो अपवादजन्य हिंसा को निर्जरा का हेतु तक बताया गया है। कहा है - यतना के साथ विचरण करते हुए अध्यात्म विशुद्धि योग से युक्त भिक्षु को विराधना - हिसा होने पर भी मुक्तिफल - प्रदात्री निर्जरा ही होती है
"जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला, मज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥"
-पिण्डनियुक्ति, ६७१ ..."या भवेद् विराधना अपवादप्रत्यया सा भवति निर्जराफला । ...'यतनयाऽपवादमासेवमानस्य या विराधना सा सिद्धि फला भवतीति ।।
—पिण्ड नियुक्ति टीका उक्त सब उल्लेखों का यही निष्कर्ष है कि साधना में साधक की अन्तर्-वृत्ति का ही महत्त्व है । यदि वह शुद्ध है, राग-द्वष से परे है, तो भिक्षु विशेष स्थिति में उदासीन - रुक्ष भाव से जो अपवाद मार्ग का अपवाद भी मार्ग है, कुमार्ग नहीं-सेवन करता है, तो उससे 'सव्यं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' सर्व सावद्य के प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता है। अर्थात् दीक्षा के समय की गई हिंसा आदि के सर्वथा त्याग की प्रतिज्ञा का अपवाद आदि विशेष स्थिति में भंग नहीं माना जाता। यावज्जीवन :
गहस्थ की सामायिक भी वैसे तो सामान्यतः जीवन-पर्यन्त होती है। गहस्थ का संयम चरित्ताचरित्त रूप है, अतः उसमें जितना अंश चारित्र का है, वह सामायिक रूप ही है, किन्तु वह श्रमण-परम्परा की सामायिक-साधना :
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