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यहाँ तक कि सजीवों की भी हिंसा होती है । इसी प्रकार वस्त्र, पात्र आदि के रूप में परिग्रह भी रखा ही जाता है । अतः प्रश्न है कि फिर भिक्षु का यह समग्र सावद्य - योग का प्रत्याख्यान क्या अर्थ रखता है ?
समाधान है - जीवन, जीवन है । उसका बहुत बड़ा भाग हिंसा एवं परिग्रह आदि पर ही टिका हुआ है । उनका सर्वथा परिहार जीवन - व्यवहार में नहीं हो सकता । नीचे की भूमिका वाले साधकों की तो क्या बात, सर्वथा पूर्ण अवस्था की भूमिका पर पहुँचे हुए केवलज्ञानियों तक से भी सर्वथा परिहार नहीं होता है । तीर्थंकर वीतराग भी नदी संतरण आदि के रूप में नौका आदि का प्रयोग करते हैं । अतः हिंसा आदि सावद्य योग का सम्बन्ध बाह्य प्रवृत्तियों से उतना नहीं है, जितना कि मानव की आन्तरिक वृत्ति से है । प्रवृत्ति में से निवार्य एवं परिहार्य हिंसा आदि का ही परिहार होता है, किन्तु जो अनिवार्य एवं अपरिहार्य है, उसका कोई कैसे परित्याग कर सकता है ? वह तो मुक्त होने से पूर्व के अयोगी गुणस्थान में ही मुक्त होती है, पहले नहीं ।
अतः प्रवृत्ति की अपेक्षा जैन दर्शन वृत्ति पर अधिक ध्यान देता है । वह कहता है, प्रवृत्ति में से तो परिहार्य हिंसा आदि ही छट सकती है, अतः वही बाह्य प्रत्याख्यान की कोटि में आ सकती है, परंतु वह पूर्णतः परित्यक्त नहीं हो सकती । हाँ, साधक अपनी वृत्ति में से हिंसा आदि का पूर्णतः निष्कासन कर सकता है । द्वेष एवं घृणा के आधार पर हिंसा नहीं, अपितु मजबूरी एवं अनिच्छा से अनिवार्यतः हिंसा होती है, और उस हिंसा की हिंसा में गणना नहीं होती । अनिवार्य अपवाद रूप में नदी संतरणादि क्रिया भी रागादि वश नहीं होती, अत: वह हिंसा भी मूलतः हिंसा नहीं है । रोगादि विशेष स्थिति में प्रतिकार स्वरूप होने वाली हिंसा भी हिंसा नहीं है । आवश्यक उपकरण आदि भी धर्मसाधना हेतु रखे जाते हैं, लोभादिवश नहीं, अतः वे भी परिग्रह की कोटि में नहीं आते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में इसीलिए आचार्य उमास्वाति ने हिंसा और परिग्रह सूत्र में कहा है कि राग-द्वेषादि प्रमाद वृत्ति से किया जानेवाला प्राणव्यरोपण ही हिंसा है, केवल प्राणव्यरोपण नहीं
चिन्तन के झरोखे से :
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