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________________ जन्मों की संख्या का सत्य नहीं है, सत्य है केवल एक कि जो चल पड़ा है ईमानदारी के साथ इस पथ पर, वह एक-न-एक दिन देर-सवेर मंजिल पर पहुँच ही जाता है । मैं चाहता हूँ, आज का साधु - समाज जिज्ञासु एवं मुमुक्षु जनता के समक्ष दीक्षा और दीक्षा के मल वैराग्य के वास्तविक स्वरूप को स्पष्टता के साथ उपस्थित करे। खेद है, दीक्षा और वैराग्य के सम्बन्ध में बहुत-कुछ गलत बातें उपस्थित की जा रही हैं। जिनसे दीक्षा का अपना परम पवित्र लक्ष्य - बिन्दु धूमिल हो गया है, एक तरह से उसे भुला ही दिया गया है। और, इसीका यह परिणाम हो रहा है कि साधाक स्वयं भी भ्रान्त हो जाता है, और साथ ही दर्शक जनता भी। मैं सुनता हूँ, साधुओं के उपदेश की घिसी-पिटी एक पुरानीसी परंपरागत प्रचलित भाषा-"संसार असार है। कोई किसी का नहीं है । सब स्वार्थ का मायाजाल है । नरक में ले जाने वाले हैं, ये सगे-सम्बन्धी। जीवन में सब ओर पाप-ही-पाप है। पाप के सिवा और है ही क्या यहाँ ? अतः छोड़ो यह सब प्रपंच । एक दिन यह सब छोड़ना तो है ही, फिर आज ही क्यों न छोड़ दो ? सर्वत्र झूठ का पसारा है, अन्धकार है, सघन अन्धकार । अन्धकार में कब तक ठोकरें खाते रहोगे ? परिवार से, समाज से, सब से सम्बन्ध तोड़ो, वैराग्य ग्रहण करो, दीक्षा लो।" यह तोतारटंत भाषा है, जिसे कुछ भावुक मन सही समझ लेते हैं, और आँख बन्द कर चल पड़ते हैं तथाकथित गुरुजनों के शब्द-पथ पर। सब - कुछ छोड़-छाड़ कर साधु बन जाते हैं, दीक्षित हो जाते हैं। परन्तु, वस्तुतः होता क्या है-इस प्रकार से दीक्षित होने के बाद ! पंथ, और सम्प्रदायों के नए परिवार खड़े हो जाते हैं, राग और द्वेष के नए बन्धन आ धमकते हैं । एक खूटे से बंधा पशु दूसरे मजबूत खूटे से बाँध दिया जाता है। क्या राहत मिलती है पशु को, खूटों के बदलने से ? दीक्षार्थी की भी प्रायः यही स्थिति हो जाती है। कुछ दूर चलकर बहुत शीघ्र ही वह अनुभव करने लगता है, कि जिस समस्या के समाधान के लिए मैं यहाँ आया था, वही समस्या यहाँ पर भी है। वही स्वार्थ है, वही दम्भ है, वही अहंकार है, वही घृणा है और है वही द्वेष ! कुछ भी तो अन्तर नहीं है, कहाँ चिन्तन के झरोखे से ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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