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________________ विश्व इतिहास पर नजर डालने से पता लगता है कि परमात्म - तत्त्व की खोज को कोई एक परम्परा नहीं है, फिर भी परम्पराओं में एकत्व परिलक्षित तो होता है । अनेक में एक का दर्शन यहाँ पर भी प्रतिभासित होता है, और वह है दीक्षा का । हर धर्म और हर दर्शन की परम्पराओं में दीक्षा है । साधना का मूल स्रोत दीक्षा से ही प्रवाहित होता है । दीक्षा का अर्थ केवल कुछ बंधी-बंधायी व्रतावली को अपना लेना नहीं है, अमुक संप्रदाय विशेष के परंपरागत किन्हीं क्रियाओं एवं वेशभूषाओं में अपने को आबद्ध कर लेनाभर नहीं है। ठीक है, यह भी प्रारंभ में होता है। इसकी भी एक अपेक्षा है। हर संस्था का अपना कोई गणवेश होता है। परन्तु, महावीर कहते हैं, यह सब तो बाहर की बातें हैं, वातावरण बनाये रखने के साधन हैं-"लोगे लिंगप्पओयणं ।" अतः दीक्षा का मूल उद्देश्य यह नहीं, कुछ और है । और, वह है परम-तत्त्व की खोज अर्थात् अपने में अपने द्वारा अपनी खोज । अस्तु, मैं दीक्षा का अर्थ आज की सांप्रदायिक भाषा में किसी संप्रदाय विशेष का साधु या साधक हो जाना नहीं मानता है। मैं आध्यात्मिक भाव - भाषा में अर्थ करता हूँ, बाहर से अन्दर में पैठना, अपने गुम हुए स्वरूप को तलाशना, बाहर के आवरणों को हटाकर अपने को खोजना, और सही रूप में अपने को पा लेना । दीक्षार्थी अपने विशुद्ध परम-तत्त्व की खोज के लिए निकल पड़ा एक अन्तर्यात्री है । यह यात्रा अन्तर्यात्रा इसलिए है कि यह बाहर में नहीं, अन्दर में होती है। साधक बाहर से अन्दर में गहरा, गहरा उतरता जाता है, आवरणों को निरन्तर तोड़ता है, फलस्वरूप अपने परम चैतन्य, चिदानन्द स्वरूप परमात्म-तत्त्व के निकट, निकटतर होता जाता है। यह खोज किसी एक जन्म में प्रारम्भ होती है, और साधक में यदि तीव्रता है, तीव्रतरता है, तो उसी जन्म में पूरी भी हो जाती है, तत्काल - तत्क्षण ही पूरी हो जाती है। और यदि साधक में अपेक्षित तीव्रता एवं तीव्रतरता नहीं है, तो कुछ देर लग सकती है। एक जन्म में नहीं, अनेक जन्मों में ज़ाकर यह खोज पूरी होती है "अनेकजन्मसंसिद्धिस्ततो याति परां गतिम् ।" दीक्षा का अर्थबोध । १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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