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________________ प्रार्थना करने लगा- भगवन्, मुझे जरा जल्दी है। कृपया मुझे अमृत पहले पिला दीजिए । विष्णु उसकी बातों में आ गए। अमृत पिलाने लगे, तो वह पीता ही चला गया, बस का कहीं नाम नहीं । विष्णु को आश्चर्य हुआ-यह कैसा देवता है, जो बेसब्री से एक सांस पीता ही चला जा रहा है, मन में जरा भी संतोष नहीं है। दूसरे भाइयों को हिस्सा देने की बिल्कुल फिकर नहीं। विष्णु ने गौर से उसकी ओर देखा, और पूछा "तू कौन है ? कैसा देवता है तू, धृष्ट और असभ्य ।" राहु चु कि अमृत पी चुका था, अतः निर्भय होकर बोला--"कौन है देवता ? मैं तो राहु हूँ-राहु ।" अमृत पी चुका, अब क्या कर सकते हो, तुम मेरा ?" विष्णु रोष में भर गए-"दुष्ट धूर्त, अभी तुझे तेरी धूर्तता का फल चखाता हूँ।" कहते हैं कि सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन उतार डाली, किन्तु वह अमृतपान कर चुका था, अतः मरने की बजाय उसके दो टुकडे हो गए, सिर का भाग राहु बन गया, नीचे वाला धड़ का भाग केतु । हाँ तो इस तरह छल ने राहु के दो टुकड़े कर डाले, और यही पौराणिक कथा का छल आज जन - जीवन के टुकड़े कर रहा है। जिन लोगों का मस्तिक अर्थात् विचार का केन्द्र अलग है और घड अर्थात् कर्म केन्द्र अलग है, वे धरती पर राहु और केतु के रूप में दैत्य ही हैं, और क्या ? मित्रता का मल केन्द्र : आर्जव : यदि मनुष्य को जीवन में अखण्डता की साधना करनी है। जीवन में एकरूपता, समरसता प्राप्त करनी है, तो यह तभी हो सकेगा-जब हमारा मन सरल होगा, ऋजु होगा । वचन और कर्म में सरलता एवं अखण्डता आएगी। संसार का प्रत्येक प्राणी मित्रता की भावना करता है। आज व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक मैत्री के सूत्र में बन्धने की कामना कर रहे हैं। पर, उस मैत्री का आधार क्या है ? मित्रता का पहला नियम है-मुक्त मन । हृदय यदि उन्मुक्त नहीं है, सरल नहीं है, तो उसमें मित्रता का प्रवेश नहीं हो सकता। खुला हृदय ही मित्रता का मंगल द्वार है। छुपावट से स्नेह के धागे टूट जाते हैं। दंभ रूप पागल हाथी की टक्कर से मैत्री का कल्पवृक्ष धराशायी धर्म की आधारभूमि : ऋजुता : ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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