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________________ विहार - यात्रा का । अन्य अनेक भिक्ष अपना बचाव करने के लिए हाथों में लम्बे - लम्बे डंडे रखते थे। अन्य भी रक्षा के अनेक उपाय किया करते थे। किन्तु, महावीर निद्व-भाव से खुले हाथों विचरण किया करते थे । अपनी रक्षा के लिए वे किसी भी साधन का उपयोग नहीं किया करते थे। महावीर को साधन की भी कोई अपेक्षा नहीं थी। पीड़ा देने वालों को दण्डित करने हेतु उनका एक साधारण - सा मुष्ठि प्रहार ही पर्याप्त था। उनका शरीर वज्र संहनन का था। उनके समक्ष ये सब लोग साधारण कीड़े-मकोड़े से भी बदतर थे। परन्तु, महावीर का लक्ष्य ही कुछ और था। वे राग - द्वष से सर्वथा विमुक्ति - यात्रा के अपराजित पथिक थे। उन्हें बीच के किसी भी तरह के विकल्पों में उलझना नहीं था। अतः उनके लिए कहा गया है- "वे संग्राम में अपराजित गजराज की तरह तथाकथित भयंकर घृणा, अपमान, तिरस्कार एवं दण्ड - प्रहार आदि के उपसर्ग - युद्ध में अबाध गति से अग्रसर होते गए।" आज की भाषा में कहा जाए, तो वे सन्त कबीर की प्रस्तुत शब्दावली पर पूर्ण रूप से खरे उतरते हैं "हाथी चलत है अपनी गति से : कुतर भूसत वाको भूसवा दे।" महावीर तो कबीर के हाथी से भी कहीं अधिक अप्रमेय हस्ती हैं । यहाँ कुत्तों के भौंकने की बात नहीं है, अपितु कुत्तों के काटने और मांस नोचने तक की कंपित करने वाली बात है। अस्तु, महावीर, महावीर क्यों है ? मूल आचारांग इसका प्रमाणत्वेन साक्षी है। भगवान् महावीर के प्राकृत एवं संस्कृत आदि भाषाओं में अन्य भी अनेक जीवन-चरित्र लिखे गए हैं, उनमें उपसर्गों की एवं भगवान् द्वारा उपसर्गों को सहर्ष सहन करने की, क्षमता के अद्भुत वर्णन आज भी उपलब्ध हैं। नागराज चण्डकौशिक की कथा प्रसिद्ध है। यह वह भयंकर विषधर नाग है, जिसने वनवासी तापसों के आश्रम उजाड़ दिए थे। वह दृष्टि - विष सर्प था। उसकी कार में ही नहीं, दृष्टि में भी विष बरसता था। इसलिए वहाँ का वातावरण सब - का - चिन्तन के झरोखे से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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