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के गुण-समुद्र को बड़े से बड़े शब्द-घट में भर लेना सम्भव नहीं है । यह तो मात्र संकेत हैं, जिन पर से भगवान् की महिमा एवं गरिमा की एक झांकी ही प्रदर्शित की गई है । उक्त झांकी पर से महावीर का महावीरत्व थोड़ा बहुत तो समझा जा सकता है | बहुत क्या, थोड़ा - से - थोड़ा ही, अल्प - से- अल्पतर एवं अल्पतम ही, इधर उधर झांककर देखा जा सकता है ।
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लेख लम्बा हो रहा है, फिर भी आचारांग के वर्णन की भी एक संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत करने का भक्ति - प्रवण मन हो रहा है ।
आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के नवम अध्ययन से सम्बन्धित तृतीय उद्दे शक में भगवान् महावीर द्वारा लाढ़ आदि अनार्य देश में विचरण करने की चर्चा है । यह अनार्य देश यों ही विहार करते हुए कहीं बीच में आ गया हो, और वहाँ विचरण की अनिवार्यता हो गई हो, ऐसी बात भी नहीं है । भगवान् ही अपनी आध्यात्मिक शक्ति एवं सात्विक वृत्ति आदि का परीक्षण करने हेतु, जानबूझकर स्वयं अनार्य देश में गए हैं । परिचित स्थानों में यह परीक्षण प्रायः असंभव होता है । विषम स्थिति में पहुँचने पर ही पता लगता है, व्यक्ति स्वयं में कितना धीर, वीर, गम्भीर एवं शूर है ।
महावीर, महावीर इसलिए हैं कि वे स्वतः ही आए हुए कष्टों को झेलते हुए भी कभी - कभी स्वयं भी कष्टों को निमन्त्रण देते रहे हैं । कष्टों के जलते हुए दावानल में स्वयं भी सहर्ष प्रवेश करते रहे हैं । अनार्य देश का विहार - जो बाद में साधु- संघ के लिए निषिद्ध हो गया था, भगवान् स्वयं वहाँ पहुँचते हैं और भयंकर कष्टों में भी उनका मुख कमल कभी भी म्लान नहीं होता है ।
आचारांग में सुधर्मा स्वामी कहते हैं - अनार्य देश में भगवान् का अत्यन्त घोर एवं भयंकर उपसर्गों का सामना हुआ । अनार्य लोग उन पर धूल फेंकते थे, उन्हें डंडों एवं पत्थरों से मारते थे, कुछ लोग उन पर शिकारी कुत्ते छोड़ देते थे और वे भगवान् के शरीर का मांस नोंच लेते थे । अनार्य जन उन्हें अपने गाँव में प्रवेश करने नहीं देते थे, अपितु उन्हें धक्का मार कर भूमि पर गिरा देते थे । बड़ा ही भीषण वृत्त है, प्रस्तुत अनार्य देश की
भगवान् महावीर, महावीर क्यों हैं ?
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