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________________ साधनों से योंही पकड़ नहीं सकते। आज की परिस्थितियों में धर्म को हमने एक तंग गली में डाल रक्खा है, जिसमें कूड़ा-करकट जमा हो रहा है । हमने सम्यक्-दर्शन - सम्यक-दृष्टि की परिभाषाएँ भी मनमानी बना ली हैं। अगर किसी ने अपनी निर्जीव परम्परा को कपड़े पर पड़ी हुई धूल की तरह झाड़ दी, तो समझ लिया जाता है-इसकी समकित भाग गई है। उसे मिथ्यादृष्टि का फतवा बहुत जल्दी दे दिया जाता है। इस प्रकार का धर्म हो रहा है कि जरा - सा भी स्पर्श कर लिया कि वह गिरा। यह क्या स्थिति है, समझ में नहीं आती? जो धर्म दुनिया को आपसी झगड़ों से बचाने ओर शान्ति देने के लिए है, वही थोड़ी-सी देर में हवा की तरह उड़ जाता हो, तो फिर धर्म किसे कहें ? धर्म की व्याख्या : धर्म की परिभाषा बताते हुए हमारे महान् आचार्यों ने कहा था __ "दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः।" धर्म वही है, जो दुर्गति में पड़ती हुई आत्मा को उठाए । धर्म वही है, जो पतन के रास्ते पर जाते हुए को बचाए । गिरना संसार है और उठना मोक्ष है। जितने - जितने हम क्रोध, मान, माया, लोभ के अधीन होते हैं, उतने - उतने गिरते जाते हैं । जितनेजितने उक्त विकारों से मुक्त होते हैं, उतने-उतने ऊपर उठते जाते हैं। तात्पर्य यह है, कि विकारों के गड्ढे में गिरना पाप है, और उससे ऊपर उठना धर्म । अतः जिसके द्वारा हम सामाजिक, राष्ट्रिय और सांस्कृतिक दृष्टि से ऊपर उठे, वह धर्म है। धर्म और जीवन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीवन तो वह है, जो धर्म के सहारे स्वयं भी उठे और साथ में समाज और राष्ट्र को भी ऊँचा उठाए। हम अपने जीवन को धर्म के द्वारा ऊँचा उठाएँ । विकृत रूढ़ियों, रीति - रिवाजों और पंथों द्वारा आत्मा कभी ऊँचा नहीं उठता है । धर्म और पंथ : धर्म और पंथ ये दो चीजें हैं। धर्म कुछ और होता है, और सम्प्रदाय या पन्थ कुछ और । पन्थ में धर्म का कभी कुछ अंश रह सकता है, परन्तु पन्थ में धर्म सदा हो ही, ऐसा नहीं होता। अतः चिन्तन के झरोखे से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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