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धर्म और परम्पराएँ
धर्म शब्द हमें अत्यन्त प्रिय लगता है, और लगना भी चाहिए। दुनिया के कोने - कोने में अपनी - अपनी पक्ष परंपरा के अनुसार जनता धर्म शब्द से पहले परिचित होती है, और दूसरी चीजों से प्रायः बाद में। होश सम्भालते ही हमारे कानों में धर्म शब्द स्थान ग्रहण कर लेता है । इस शब्द से हम ज्यादा परिचित हैं, श्वास से भी ज्यादा । परन्तु, हम धर्म के जितने निकट परिचित हैं, उतनी ही इसमें भूलें आ गई हैं। कभी-कभी ऐसा होता है-हम दूर की चीजों पर जल्दी नजर डाल देते हैं, पर पास की चीजों को देखने में असमर्थ रहते हैं । आँखें दूर - दूर की चीजें तो देख लेती हैं, पर नजदीक का, अपनी आँखों पर लगा सुरमा, नहीं देख पातीं। यही हाल धर्म का है। धर्म की बात सुनते हुए कितना समय बीत गया है ? परन्तु हम उसे शुद्ध रूप में, निज गुण के रूप में देखना भूल गए हैं, और धर्म के नाम पर कुछ दूसरी बाह्य चीजें पकड़ ली हैं। और जब इन बाह्य बातों में थोड़ा - सा परिवर्तन या रद्दो-बदल करने की आवाज उठती है, तो हल्ला मच जाता है, मानो हमारा धर्म नष्ट हुआ जा रहा हो। ये बाह्य चीजें एक फोड़े की तरह हो गई हैं। एक बच्चे के हाथ में जब जहरीला फोड़ा हो जाता है, और उससे सारा हाथ सूज जाता है, डाक्टर जब उसे चीरने लगता है, तो बच्चा चिल्लाता है। इसी तरह धर्म के प्रचलित रूपों के अंग में कुछ फोड़े हो गए हैं, जिन्हें विचारक और क्रांतिकारी लोग चीरने के लिए अपने चिन्तन का प्रयोग करते हैं, तो समाज में हल - चल - सी मच जाती है। हम जब धर्म के सम्बन्ध में कुछ सोचते हैं, तो अपने आपको बौना पाते हैं । धर्म की तो महान् ऊँचाइयां हैं। उन अनन्त - अनन्त ऊँचाइयों को केवल बाहरी
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