________________
उन वैश्यों को इष्ट की प्राप्ति कराकर और उनके अनिष्ट
का निवारण करके, तुम उन सब लोगों का भरण - पोषण तो करते हो न ? क्योंकि राजा को अपने राज्य में निवास करने वाले सब लोगों का धर्मानुसार पालन करना चाहिए ।
-
आयस्ते विपुलाः कच्चित्, कच्चिदत्पतरो व्ययः । अपात्रेषु न ते कच्चित्, कोषो गच्छति राघव ॥ ५४ ॥
- रघुनन्दन ! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है ? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों अर्थात् अयोग्य जनों के हाथ में तो नहीं चला जाता है ?
कच्चिदार्योऽपि शुद्धात्मा, क्षारितश्चापकर्मणा । अदृष्टः शास्त्रकुशलैर्न, लोभाद् बध्यते शुचिः ॥५६॥
-कभी ऐसा तो नहीं होता, कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ, निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुष पर भी दोष लगा दे तथा न्याय-शास्त्रज्ञान में कु. शल विद्वानों द्वारा उसके विषय में विचार कराए बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दण्ड दे दिया जाता हो ?
व्यसने कच्चिदाढ्यस्थ, दुर्बलस्य च राघव ।
अर्थ विरागाः पश्यन्ति, तवामात्या बहुश्रुताः ||५७ ॥ - रघुकुल भूषण ! यदि धनी और गरीब में कोई विवाद छिड़ा हो, और वह राज्य के न्यायालय में निर्णय के लिए आया हो, तो तुम्हारे बहुश्रुत ( बहुविज्ञ ) मन्त्री धन आदि के लोभ से मुक्त रहकर उस मामले पर न्यायसंगत यथोचित विचार करते हैं न ?
Jain Education International
यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि राघवः ।
तानि पुत्रपशून् ध्नन्ति, प्रीत्यर्थमनुशासतः ॥५६॥
- रघुनन्दन ! निरपराध होने पर भी जिन्हें मिथ्या दोष लगाकर दण्ड दिया जाता है, उन मनुष्यों की आँखों से जो आँसू गिरते हैं, वे पक्षपात पूर्ण शासन करने वाले राजा के पुत्र और पशुओं का नाश कर डालते हैं ।
कच्चिद् वृद्धांश्च बालांश्च, वैद्यान् मुख्यांश्च राघव । दानेन मनसा वाचा, त्रिभिरेत बुभूष से ॥६०॥
भारतीय संस्कृति में प्रशास्ता की : कर्तव्य भूमिका :
For Private & Personal Use Only
१०६
www.jainelibrary.org