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-नाना प्रकार के राजभवन और मन्दिर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वह नगरी बहुसंख्यक विद्वानों से भरी है। ऐसी अभ्युदयशील और समृद्धिशालिनी नगरी अयोध्या की तुम भलीभांति रक्षा तो करते हो न ?
देवस्थानः प्रपाभिश्च, तटाकैश्चोपशोभित ॥४३॥ प्रहृष्टनर - नारीकः, समाजोत्सव शोभितः । सुकृष्ट सीमापशुमान, हिंसामिमिवर्जितः ॥४४॥ अदेवमातृको रम्यः, श्वापदेः परिवर्जितः । परित्यक्ते भयः सर्वैः, खनिभिश्चोपशोभितः ॥४५॥ विवर्जितो नरैः पापर्मम, पूर्वः सुरक्षितः ।
कत्विज्जनपद: स्फीतः, सुखं वसति राघव ॥४६॥ -अनेकानेक देवस्थान, प्रपा, और तालाब जिसकी शोभा बढ़ाते हैं, जहाँ के स्त्री-पुरुष सदा प्रसन्न रहते हैं, जो सामाजिक उत्सवों के कारण सदा शोभा - सम्पन्न दिखाई देते हैं, जहाँ खेतजोतने में समर्थ पशुओं की अधिकता है, जहाँ किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती है, जहाँ खेती के लिए वर्षा के जल पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है (नदियों के जल से सिंचाई हो जाती हैं) जो बहुत सुन्दर है, और हिंसक पशुओं से रहित है, जहाँ किसी तरह का भय नहीं है, नाना प्रकार की खाने जिसको शोभा को बढ़ाती हैं, जहाँ पापी एवं दुष्ट स्वभाव के मनुष्यों का सर्वथा अभाव है तथा हमारे पूर्वजों ने जिसकी भली-भांति रक्षा की है, वह अपना कौसल देश धन - धान्य से सम्पन्न और सुख पूर्वक बसा हुआ है न ?
कच्चित् ते दयिता: सर्वे, कृषिगोरक्ष जीविनः ।
वार्तायां संत्रितस्तात, लोकोऽयं सुखमेधते ।।४७॥ -तात ! कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलाने वाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र हैं न ? क्योंकि उनके कृषि और व्यापार आदि में संलग्न रहने पर ही राष्ट्र सुखी एवं उन्नतिशील होता है ।
तेषां गुप्तिपरिहारः कच्चित, ते भरणं कृतम् । रक्ष्या हि राज्ञा धर्मेण, सर्वे विषय वासिनः ॥४८॥
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चिन्तन के झरोखे से :
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