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________________ भी उसके साथ अमुक अंश में शुभ भावों का होना ही देव-गति के बन्ध का हेतु है। उक्त वर्णन सूत्र शैली के कारण संक्षिप्त शब्दों में उल्लिखित है। अतः उक्त हेतुओं में मूल आगमों में अन्यत्र कथित तथा आगमोत्तर - साहित्य में विशेष रूप से कथित, देव-गति के विस्तृत हेतुओं का वर्णन भी इसमें समाहित हो जाता है। देव एवं गुरु की भक्ति, माता - पिता आदि गुरुजनों की सेवा वृद्ध, रोगी, किसी अभावग्रस्त की सेवा, अतिथि - सत्कार, दान, दया, दूसरों के सद्गुणों की प्रमोद - भाव से प्रशंसा, लोक-जीवन कल्याण हेतु श्रेष्ठ संस्थाओं की स्थापना एवं संचालन, सहिष्णुता, क्षमाशीलता, सद्भावना आदि अनेकानेक सत्कर्म ऐसे हैं, जो व्यक्ति को देव - गति की यात्रा पर ले चलते हैं। हमने यहाँ संक्षेप रुचि के कारण ग्रन्थों के नाम के साथ विशेष वर्णन न कर मात्र परिचय के रूप में यत्किचित निर्देशन किया है। भारत की आस्तिक परम्पराओं में जैन - परम्परा के साथ अन्य भी धार्मिक-परम्पराएँ हैं । कोई भी धार्मिक-परम्परा क्यों न हो, वह नरक-स्वर्ग के वर्णन से अस्पृष्ट नहीं रह सकती है। अतः हम यहाँ वैष्णव साहित्य के पुराणों में से भी कुछ वर्णन उपस्थित कर रहे हैं। वर्णन की संक्षिप्तता हमारी अपनी है। किन्तु, वह मानवीय - जीवन के कल्याण के लिए बहुत अधिक उपयुक्त है। संक्षेप और विस्तार अपने में कोई अर्थ नहीं रखते हैं। मूल अर्थ है, सदाचार रूप से कर्तव्य का निष्ठा के साथ आचरण और कदाचार रूप कुत्सित कर्तव्य का निराकरण । समस्त वर्णन पर से यही दष्टि लेनी चाहिए-"आचारः प्रथमो धर्म:" आचार अर्थात सदाचार, शिष्टाचार, कल्याणकारी सत्कर्म, यही मुख्य धर्म है। देव-गति के हेतुओं का वर्णन पद्मपुराण के भूमि-खण्ड में इस प्रकार है " सत्येन तपसा क्षान्त्या दानेनाध्ययनेन च । ये धर्मानुवर्तन्ते ते नरा: स्वर्गगामिनः ॥"६६, २१ -सत्य, तपस्, क्षमा, दान और अध्ययन इत्यादि धर्मों का जो अनुवर्तन करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। १० चिन्तन के झरोखे से: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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