SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इधर राणकपुर के ऐतिहासिक दिव्य कला कृति के मन्दिर को बम से उड़ा देने की धमकी मिली है । जिन प्रतिमाओं के चक्षु भी अनेक बार उखाड़ कर चुराये जा चुके हैं । मूर्तियों की चोरी की बात तो आम हो गई है । - इन सब कारनामों के पीछे अन्य अजैन ही नहीं, जैनों के भी नाम आ रहे हैं । दुर्भाग्य की बात है, धर्म पर धर्म का ही आक्रमण हो रहा है । धर्म अपनी मूल आत्मा खो बैठा है, और अज्ञानान्धजन उसके क्रिया-काण्ड रूप शव को लिए बैठे हैं । मैं केवल जैनों की बात ही नहीं कर रहा हूं । हिन्दू, सिक्ख, ईसाई, मुसलमान, पारसी आदि कोई भी हों, किसी का भी उत्पीड़न भयंकर पाप है, वह भी धर्म के नाम पर । क्या आदमी धर्म के नाम की मदिरा में सचमुच ही होश - हवाश खो बैठा है ? धर्म तो जनहित में है । मैत्री, करुणा की पक्ष मुक्त निर्मल ज्योति में हैं । सच्चे धर्म सब 'स्व' के अपनेपन के दायरे में हैं । वहाँ पर अर्थात् पराया जैसा कुछ है ही नहीं । यह मेरा तेरा धर्म नहीं, सम्प्रदाय हैं, जो अहम् के दम्भ में से जन्म लेते रहे हैं। आज अपेक्षा है धर्म की शुद्ध परिभाषा को पुन: परिभाषित करने की । जहाँ भी सम्प्रदाय के नाम पर धर्म का नाम लिया जाता हो, विग्रह, कलह, घृणा फैलाई जाती हो, उसका पक्षमुक्त शुद्ध हृदय से डटकर प्रतिकार करने की, फिर वह धर्म या तथाकथित संप्रदाय अपना हो, दूसरों का हो, किसी का भी हो । शुद्ध अहिंसा धर्म में इस तरह की बातों के लिए कोई स्थान नहीं है । प्रबुद्ध मनीषी वर्ग को, विशेषतः नवयुग की क्रान्ति के पक्षधर शिक्षित युवकों को इसके लिए संघटित होना है । प्रतिकार के रूप में हमें न स्वयं मरना है और न किसी को मारना है । मारना है, अज्ञानता की पशु- मनोवृत्ति को । इधर-उधर विरोध में दो-चार जुलूस निकालने, निन्दा प्रस्ताव पास करने या सरकार के द्वार पर गुहार मचानेसे कुछ नहीं होना-जाना है । यदि ऐसा कुछ होता, तो कभी का हो गया होता । इसके लिए तो प्रत्येक परम्परा के आचार्यों को, पदवीधरों को मिलकर विचार करना है, भविष्य के लिए जनता को एकमुख हो कर क्रियाशील क्रान्तिकारी योजना अर्पित करना है । (३४४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy