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हुए हैं । यह तो अन्तर्चेतना की जागृति है और वह कहीं भी हो सकती है । श्रमण भगवान महावीर की निर्वाण के क्षणों में दी गई दिव्य-देशना है -
“सन्ति एगेहिं भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा ।” – उत्तराध्ययन ५.२० - कुछ भिक्षुओं-साधुओं की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं ।
उपसंहार :
___ अस्तु, त्रिकरण और त्रियोग का त्याग आवश्यक प्रवृत्ति एवं प्रवृत्तिजन्य हो जाने वाली बाह्य हिंसा तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत साधक की प्रवृत्ति राग-द्वेषात्मक एवं काषायिक वृत्ति के साथ न हो, इसके लिए है | यथार्थ में त्याग राग-द्वेष एवं कषाय वृत्ति का है । परिणामों में कषाय की तीव्रता न उभरने पाए, इसके लिए साधक को सजग होकर गति करना है, द्रष्टा-भाव से प्रवृत्ति में प्रवृत्त होना है । आज के साम्प्रदायिक उठा-पटक के अशान्त वातावरण में साधु-साध्वियों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे आत्म-निरीक्षण करके देखें कि उनकी अध्यात्म-साधना त्रिकरण-त्रियोग के त्याग की सही दिशा में कितनी आगे बढ़ रही है, राग-द्वेष एवं कषाय-वृत्ति कितनी घट रही है ? यदि कषायों को कम कर सके, तो साधना में अवश्य तेजस्विता आएगी और साम्प्रदायिक कलह-कदाग्रह भी समाप्त होंगे।
दिसम्बर १९८५
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