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छू जाए, कहीं कच्चे पानी आदि का स्पर्श हो जाए, फलस्वरूप स्थावर जीवों की विराधना हो जाए, तो प्रतिक्रमण के समय उनकी आलोचना की जाती है । परन्तु, दिन भर में एवं रात्रि में कितनी बार क्रोध आया, कितनी बार अहंकार आया, कितनी बार लोभ आया और कितनी बार माया-छल-कपट किया जो संसार परिभ्रमण के कारण हैं, अध्यात्म-साधना के भयंकर दोष हैं, न तो उनकी कोई स्मृतिपूर्वक गणना है और न उनकी आलोचना है | लगता है, सारे महाव्रत अग्नि-पानी को छू जाने में टूट जाते हैं, परन्तु विचार एवं परिणामों के द्वारा किसी वरिष्ठ सन्त के व्यक्तित्व हनन के रूप में की गई हिंसा से असत्य से, यश-प्रतिष्ठा कामना एवं आसक्ति रूप परिग्रह से, पदार्थों के भोगोपभोग की आसक्ति से तथा कषायों से उनके महाव्रत नहीं टूटते । वस्तुत: देखा जाए, तो बाह्य हिंसा हो भी जाए तब भी साधक विरोधक नहीं होता, परन्तु कषायों में, राग-द्वेष में, वैर-विरोध में, उलझा साधक तो आगम की भाषा में संयम का आराधक रहता ही नहीं । अस्तु, वीतराग भाव को भूल कर साम्प्रदायिक प्रतिष्ठा के व्यामोह में केवल क्रिया काण्ड का प्रदर्शन करना दम्भ है, मायाचार है और प्रतिज्ञा का विकृत रूप है ।
याज्ञिक हिंसा : हिंसा :
यह तर्क कितना हास्यास्पद है कि “ याज्ञिकी हिंसा, हिंसा न भवति-इस तथ्य को स्वीकारने में जैन-समाज को क्या आपत्ति है ।" श्रमण-श्रमणी की विवेक योग्य प्रवृत्ति से होने वाली बाह्य हिंसा की याज्ञिकी हिंसा से तुलना करना कथमपि संगत नहीं है । क्योंकि यज्ञों में बकरे, भेड़े, अश्व, बैल एवं मनुष्य तक की जो बलि दी जाती थी और आज भी भारत के प्राय: सभी प्रान्तों में देवी की सामने बलि दी जाती है, वह पशुओं का वध करने की भावना से ही दी जाती रही है और दी जाती है | पशुओं का वध करने के क्रूर परिणामों से किया जाने वाला कार्य हिंसा ही है । इसलिए श्रमण भगवान् महावीर ने उसका विरोध किया और आज भी जैन श्रमण उसका विरोध करते हैं, परन्तु धर्मचर्या हेतु जाते हुए विशाल नदियों के बीच में आ जाने पर उन्हें नौका द्वारा पार किया जाना चिरकाल से चला आ रहा है । तीर्थंकर एवं गणघरों के काल में भी था यह | अत: उसकी तुलना बलि आदि से कैसे की जा सकती है | यान न सही, परन्तु साधु धर्म प्रचार के लिए पाद-विहार करते हैं, उसमें भी बाह्य हिंसा तो होती ही है, परन्तु वह जीवों का वध करने की
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