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इधर आएँगे और उधर तत्क्षण ही झड़ जाएँगे, राग-द्वेष का अभाव होने से स्थिति-बन्ध नहीं होगा और यदि पद-यात्रा कर रहे हैं, परन्तु विवेक का अभाव है, तो उस विहार प्रवृत्ति से पाप-कर्म का बन्ध होगा । अस्तु सावद्य अर्थात् सदोष प्रवृत्ति नहीं, राग-द्वेषात्मक, कषायात्मक वृत्ति है । और, उसका त्याग ही सामायिक है-भले ही वह देश-व्रत की हो या सर्व व्रत की ।
प्रतिज्ञा का विकृत रूप :
त्रिकरण-त्रियोग के त्याग में मुख्यता है-राग-द्वेष एवं कषाय-वृत्ति का क्षय एवं क्षयोपशम करना । क्योंकि गुणस्थानों का विकास बाह्य क्रिया-काण्ड एवं बाहर की विधि-निषेधात्मक प्रवृत्ति-निवृत्ति पर आधारित नहीं है । श्रमणत्व-साधुत्व, क्रिया-काण्ड की साधना में, वह बाह्य नियमोपनियमों में नहीं, वीतराग-भाव में है । अध्यात्म-साधना वीतराग का मार्ग है । वह जड़ता की नहीं, चिन्मय वीतरागता की साधना है । अत: साधक को पूर्णत: सावधानी रखनी है कि साधना-पथ की जीवनयात्रा में किसी भी परिस्थिति में कषायों का संस्पर्श न हो । यदि कभी प्रमाद के झोंके में कषाय का उदय हो भी जाए, तो तुरन्त संभल कर कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ को उपशान्त करके अपने स्वभाव में आ जाए । साधक को निरन्तर सजग रहना है कि जीवन में कषायों का, कामनाओं का प्रवेश न होने पाए ।
परन्तु, आज क्या हो रहा है ? केवल बाह्य क्रिया-काण्ड का प्रदर्शन । कोई साधु माइक पर बोल गया कि संयम टूट गया ? देशकालादि की परिस्थिति विशेष तथा धर्म प्रचार हेतु यानादि का प्रयोग होते ही धर्मभ्रष्टता का हल्ला मचाने लगते हैं धर्म के ठेकेदार । सारा संयम माइक पर नहीं बोलने एवं पद-यात्रा में ही रह गया है । भले ही प्रेसों में उनकी पुस्तकें छप रही हैं, उनका सामान, पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ वाहनों में आ-जा रही हैं, वीडिओ फिल्में खींची या खिंचवाई जा रही हैं । खेद है, उनमें उन्हें कोई दोष प्रतिभासित नहीं होता |
इसके अतिरिक्त सभी जैन-परम्पराओं के वरिष्ठ आचार्य एवं पदवीधर तथा साधु-साध्वी अहर्निश एक-दूसरे की निन्दाबुराई में, घृणा फैलाने में, एक-दूसरे को नीचा दिखामे में संलग्न रहते हैं । विहार-यात्रा एवं गोचरी-शौच आदि के लिए जाते हुए इधर-उधर बचने का अन्य मार्ग न होने पर हरी सब्जी
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