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अपेक्षा है कूप-मण्डूकता के परित्याग की
आज के युग की सबसे बड़ी समस्या कूप-मण्डूकों की समस्या है । कूप-मण्डूकों का दर्शन, चिन्तन कूप के क्षुद्र अन्धेरे घेरे में ही सीमित है । उनका अस्तित्व जो भी है, कूप के अन्दर ही है । बाहर में कोई सागर भी है, नदियाँ भी हैं, निर्झर भी हैं, उन्हें कुछ पता नहीं | यदि कोई उनके अस्तित्व की चर्चा करता भी है, तो वे मानने को बिल्कुल तैयार नहीं होते, अपितु लड़ने-मरने के लिए, खून-खराबा करने के लिए तैयार हो जाते हैं । तैयार क्या, आए दिन ऐसा करते ही हैं।
सबसे भयंकर हैं, धर्म-क्षेत्र के कूप-मण्डूक । अपने धर्मसम्प्रदाय की मान्यताओं के कूप में पड़े हुए ये धार्मिक कूप-मण्डूक, समग्र सत्य का भंडार, अपने मत-पंथों के विधि-निषेधों में, क्रिया-काण्डों में, मान्यताओं में ही देखते हैं । इनका मानना है जो भी सत्य है वह सब हमारे ही पास है दूसरों के पास सत्य जैसी कोई चीज है ही नहीं । दूसरों के लिए इनके पास प्राय: एक ही शब्दावली है कि ये मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, मिथ्या दृष्टि हैं, असत्य को सत्य मानकर बैठे हुए हैं, आँख के अन्धे हैं । इन्हें कौन समझाए कि ये तुम्हारी विधि-निषेधों की मान्यताएँ, क्रिया-काण्डों की परिकल्पनाएँ देश-काल आदि की परिस्थितियों में जन्म लेती हैं और कुछ काल जीवित रहकर देश-काल के बदलते परिवेश में जीर्ण-शीर्ण हो जाती हैं, अन्तत: मर भी जाती हैं, परन्तु ये कूप-मण्डूक उन्हें अजर-अमर मानते हैं, अब भी जीवित होने के भ्रम में उनकी सड़ती-गलती लाशों को गगन-भेदी जयजयकारों के साथ सिर पर ढोये फिरते हैं |
कहने को भारत धर्म-प्रधान देश है । ऐसा कहते हुए हम प्राय: गौरवानुभूति ही क्या, गर्वानुभूति भी करते हैं, परन्तु क्या सचमुच में ऐसा है ? सत्य कड़वा है, फिर भी वह कहना ही है । भारत अब धर्म-प्रधान देश नहीं, धर्म के नाम पर अन्ध-विश्वासप्रधान धर्म का देश है। भारत-पाकिस्तान के
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