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झोंक देते हैं । पेट की आग बुरी होती है । दूसरी ओर, उन अशिक्षित, भोले, गरीब माँ-बाप को ठीक तरह पता भी नहीं होता कि इन तथाकथित कारखानों में अपने प्रिय बच्चों के साथ क्या-कुछ अमानवीय पशुवत् दुर्व्यवहार हो सकता है । कुछ अनाथ बच्चे खुद भी रोजी-रोटी के लालच में इस मायाजाल में फँस जाते हैं। एक बार फँसे तो, ऐसे फँसे, कि फिर उन्हें उद्धार का कोई मार्ग नहीं मिल पाता ।
मिर्जापुर आदि में कालीन बुनाई आदि के कारखानों के मालिकों द्वारा बँधुआ बाल-श्रमिकों पर क्या गुजरती है ? इसका कुछ अंश ही दैनिक एवं अन्य समाचार पत्रों के माध्यम से उजागर हुआ है, आपने पढ़ा भी होगा, इस नारकीय - यंत्रणा का रोमांचकारी वर्णन ।
- करीब १८ से २० घंटों तक उनसे बेहिसाब काम लिया जाता है । - काम में जरा ढिलाई करने पर निर्दयतापूर्वक पिटाई की जाती है । - पेड़ों से बाँधकर उल्टा लटका दिया जाता है । - लोहे की गर्म जलती सलाखों से दागा भी जाता है । - समय पर पेट भर खाना भी नहीं दिया जाता, अधिकतर भूखे ही रहना होता है । - फटे-पुराने गंदे कपड़ों में मात्र तन ही ढाँका जाता है, वह भी ठीक तरह से नहीं ।
कहाँ तक गिनाया जाए, लगता है, उच्च श्रेणी एवं जाति के नामधारी पूंजीपति तन से ही मनुष्य हैं, अन्तरात्मा से नहीं। माना कि, स्वार्थपूर्ति मानव-जीवन की एक अनादिकालीन अनिवार्य समस्या है, मानव संग्रहशील लोभी प्रकृति का प्राणी है, किंतु इसकी कुछ सीमा तो हो । स्वार्थ के, तृष्णा के बेलगाम अन्धे घोड़े पर मानव कहाँ तक दौड़ता रहेगा । याद रखिए, महाश्रमण भगवान् महावीर ने प्रस्तुत लोभवृत्ति पर क्या कहा था? उन्होंने कहा था - 'लोभो सबविणासणों' अति का लोभ मानव की सभी कुछ श्रेष्ठताओं को, अच्छाइयों को, मानवीय भावनाओं को नष्ट कर देता है।
सुप्रसिद्ध दैनिक नई दुनिया (२३ अप्रैल ८४) का अग्रलेख सामने है। बच्चों के शोषण की दुःस्थिति का नग्न चित्र उपस्थित है -
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