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________________ जाति का आग्रह रहा है, रूढ मान्यताओं का आग्रह रहा है, और भी अनेक आग्रह रहे हैं, और वे दुराग्रह का रूप भी लेते रहे हैं । परन्तु, गाँधीजी का आग्रह सिर्फ आग्रह ही नहीं रहा उसके पीछे सत्य जुड़ा हुआ है | अत: वह सत्याग्रह है । वह इतिहास का एक विलक्षण मोड़ है । जब कि इतने बड़े साम्राज्य की शक्ति को अहिंसा के बल पर चुनौती दी गई । अब तक राजनीति के क्षेत्र में इन हजारों वर्ष की अवधि में इस तरह की चुनौती नहीं दी गई, कि हम शत्रुता को मैत्री से जीतेंगे, घृणा को स्नेह से जीतेंगे। यह चुनौती सात्त्विक सत्याग्रह के रूप में दी, महात्मा गाँधी ने | ऐसे व्यक्ति तो बहुत हैं, जो समाज की स्थितियाँ सामने होती हैं, उन्हें देखते हैं, किन्तु उनके समाधान के लिए इस धरती की ओर न देखकर आकाश की ओर देखते हैं। भगवान की और ग्रह-नक्षत्रों की ओर ही नजर लगाए रहते हैं । महर्षि कणाद थे, जिन्हें अक्षपाद भी कहते हैं । कहा जाता है, वे ज्योतिष-शास्त्र के भी बहुत बड़े ज्ञाता थे | एक रात ऊपर आकाश में ग्रहों की, तारों की गति को देखते चल रहे थे । भाग्य इस धरती का देखना है और उसे देख रहे थे वह सितारों में कि कौन ग्रह उदित हो रहा है, कौन अस्त हो रहा है, किस ग्रह के साथ किसका सम्बन्ध जुड़ रहा है | और, उससे क्या प्रतिफलित होने वाला है ? मार्ग में एक पुराना कुआँ था, चलते-चलते उसमें गिर पड़े | अपने एक इष्ट देवता को पुकारा | वह आया और कुएँ में से उन्हें निकाला और कहा “ जब धरती पर चल रहे हो, तो धरती को देखकर ही चलना चाहिए, न कि आकाश की ओर देखते चलो ।" कणाद ने कहा-" जो हुआ सो हुआ । अब तुम मेरे पैरों में अक्ष ( आँख ) लगा दो, जिससे आकाश के साथ-साथ धरती को भी देख सकुँ । " देव ने तथास्तु कहा और कहते हैं उनके पैरों में आँख लग गई । कणाद से अक्षपाद हो गए। महर्षि कणाद के पैरों में आँख लगी या नहीं, किंवदन्ती है, अत: यह चर्चा छोड़ दें। लेकिन, सत्यार्थ है, हर कदम को आँख चाहिए। पैर कर्म के प्रतीक हैं, यदि कर्म को ज्ञान की आँख नहीं है, तो एक-दो नहीं, हजारों-लाखों कणाद कुएँ में गिरेंगे । अत: धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना को जागृत रखना है, तो कर्म के साथ ज्ञान की आँख आवश्यक है। केवल परलोक को (२८७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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