SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से जानते-पहचानते हैं, श्रद्धा से उसका स्मरण करते हैं । उस समय गुलामी की जंजीर में जकड़े हुए और भी अनेक नेता और प्रजा के व्यक्ति थे । परन्तु, गाँधीजी ने इस बात को समझा कि जब तक इस विष-वृक्ष को जड़ से नहीं उखाड़ा जायेगा, तब तक केवल पत्तों को नोचते रहने से कोई लाभ होनेवाला नहीं है । उन्होंने उद्घोष किया-दासता राष्ट्र का अपमान है | इसने राष्ट्र की ऊर्जा को शक्ति को समाप्त कर दिया है | राष्ट्र के गौरव और गरिमा को नष्ट कर दिया है, इस गुलामी ने । देश में पहले भी कुछ प्रयत्न हुए हैं। महाराणा प्रताप, शिवाजी, महाराणी लक्ष्मीबाई आदि ने आजादी के लिए प्रयास किए । परन्तु, वे प्रयत्न क्षेत्रीय-प्रान्तीय दृष्टिकोण से हुए हैं । उसने सम्पूर्ण भारत की चेतना को जागृत नहीं किया । और, उन प्रयत्नों के पीछे शत्रु के प्रति शत्रुता की, प्रतिशोध की, घृणा एवं द्वेष की भावना ही अधिक थी। उन्होंने वैर को वैर से, घृणा को घृणा से, द्वेष को द्वेष से, हिंसा को हिंसा से बदलना चाहा | परन्तु, गाँधीजी का प्रयोग सात्विक है । यह विलक्षण एवं अद्भुत प्रयोग है इतिहास का । यह साधारण प्रयोग नहीं है । आज हम उस विराट आत्मा को याद कर रहे हैं, जिसने अपना सुख, अपनी सुविधाएँ सब-कुछ राष्ट्र को अर्पित कर दी । और, गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए स्वयं के ही द्वारा चलाये गये सत्याग्रह आन्दोलन में अनेक कष्ट उठाए, पर कोई चिन्ता नहीं की | जेल की सीखचों में बन्द हैं, यातना भोग रहे हैं, परन्तु इसके लिए न किसी के प्रति द्वेष है, न प्रतिशोध की कोई दुर्भावना है । उस विराट पुरुष की ओर से स्वतन्त्रता की वह शंख ध्वनि अनुगुंजित हुई, कि हजारों लाखों युवक-युवतियाँ, प्रौढ़, बूढ़े, यहाँ तक की बच्चे भी उनके कदमों पर चल पड़े | जो बहनें शताब्दियों से घर की चार दीवारी में बन्द थीं, वे भी स्वतन्त्रता सैनिकों के रूप में सत्याग्रह के हेतु बाहर निकल आई । यही एक विराट चेतना थी, जिसने जन-जीवन में जागरण की ज्योति प्रज्वलित की और सम्पूर्ण राष्ट्र की चेतना को जगा दिया। वह वास्तव में ज्ञाता-द्रष्टा था । ज्ञाता-द्रष्टा वह है, जो सामने परिस्थिति है, समस्या है, उसे देखे और साथ ही उसके प्रतिकार को भी देखे । प्रतिकार ऐसा हो, जो सात्विक हो, सबके लिए हितकर हो । भले ही कुछ आग्रह हो तो हो, पर दृष्टि साफ-स्वच्छ, निर्मल हो । मनुष्य आग्रह से शून्य कभी होता नहीं | पंथ का आग्रह रहा है, (२८६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy