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कहते ? अनार्य कर्म कहते न ? महाश्रमण भगवान महावीर ने तो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने के बाद कृषि की गणना आर्य-कर्म में की है, उसे अल्पारंभ कहा है | अतः भगवान ऋषभदेव को गृहस्थ जीवन में कृषि-कर्म आदि के उपदेष्टा एवं मार्गदर्शक बताकर अपनी गलत बात का बचाव करना, स्वयं को भी धोखा देना है और दूसरों को भी धोखा देना है।
प्रस्तुत आर्य-कर्म का अर्थ काफी गम्भीर है । वह है, जो कर्म सम्यक् रूप से जीना सिखाये, सही तरीके से जीवन की समस्याओं का समाधान करे, वही आर्य-कर्म है, अर्थात् श्रेष्ठ-कर्म है, वही सुख एवं शान्ति का मार्ग है । चोरी, डकैती, जेब काटना, छीना-झपटी आदि अनार्य कर्म उन्होंने नहीं सिखाये । जब कि इनमें कृषि जैसी बाहय हिंसा कहाँ होती है? किसी राह चलते की जेब काट ली, उसे लूट लिया । कहाँ हिंसा हुई इसमें ? परन्तु, बाहर में दिखाई देने वाली इस अहिंसा का क्या अर्थ है । किसी का वध कर देना मात्र ही हिंसा नहीं है, अनैतिक कर्म करना एवं अन्याय-अत्याचार करना, यह भी हिंसा ही है, और बहुत बड़ी घातक हिंसा है । एक व्यक्ति वासना पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं कर पाता है, तो वह विवाह करके उसे एक सीमा में सीमित-नियमित कर लेता है,
और एक व्यक्ति विवाह तो नहीं करता, पर वासना-पूर्ति के लिए उधर-उधर वेश्यादि के द्वार पर भटकता फिरता है । दोनों में अनैतिक कौन है ? महापापी कौन है ? अबारा घूमने वाला महापापी है, क्योंकि वह अनैतिक है । ये जीवन के छोटे-छोटे प्रश्न भी इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इनका सही समाधान नैतिक दृष्टि से समाचरित पुरुषार्थ से ही करना चाहिए । ऐसा न कर के अनैतिक ढंग से उनका समाधान करें, तो यह महाहिंसा है | अपने दायित्व से एवं पुरुषार्थ से दूर हट कर, जो व्यर्थ ही अपने भोगोपभोग की पूर्ति के लिए इतस्ततः भटकता है, वह अनैतिक है, महारंभी है । प्रजा उस अनैतिक जीवन की ओर न चली जाय, इसलिए ऋषभदेव ने उस युग की अनभिज्ञ जनता के हाथ में कर्म दिया । उसे सात्विक जीवन जीना सिखाया।
.. भगवान ऋषभदेव ने यथार्थ को पकड़ा । जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सात्विक एवं अहिंसक जीवन जीने की दृष्टि भगवान ऋषभदेव ने दी । उस समय उन्होंने यह नहीं सोचा कि मुझे इन सबसे क्या लेना-देना है, मुझे तो अपनी आत्मा का कल्याण करना है ? मुझे तो तीर्थंकर
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