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है, अत: भक्ष्य है । दूसरी ओर कुलत्थी का अर्थ कुलस्त्री से संबंधित है, अत: वह अभक्ष्य है ।
कितना सुन्दर समन्वय है शब्द शास्त्र की दृष्टि से भी । इस प्रकार से दोचार नहीं, बहु-संख्यक उदाहरण हैं प्राचीन आगम साहित्य में । जिज्ञासुओं को पक्षमुक्त हो कर प्रयुक्त वचनों का सम्यक् रूप से अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करना चाहिए।
जैसा कि मैंने लेख के पूर्व में कहा है- आज के समाज और धर्म द्वन्द्वात्मक विषम स्थिति में से गुजर रहे हैं । अर्थहीन संघर्ष में अनुरक्त हैं । यह विग्रह और कलह अनेकान्त-दृष्टि के बिना कभी शान्त नहीं हो सकते। आज करें या कल, सार्वजनिक शान्ति के लिए अनेकान्त - दृष्टि का यथोचित उपयोग करना ही होगा । जितनी भी विचार धाराएँ हैं, सभी कभी प्रत्यक्ष, तो कभी परोक्ष रूप से, अनेकान्त महासागर की ओर ही प्रवहमान हैं । सागर का अर्थ है - सबका मिलकर एक हो जाना । अतः अनेकान्त एकत्व का सूत्रधार है । सतही एकत्व का नहीं, अपितु यथार्थ एकत्व का अनेकान्त ध्वंश नहीं, निर्माण का ब्रह्मा है । वह तोड़ने की नहीं, जोड़ने की दृष्टि देता है ।
महाश्रमण भगवान महावीर का यह दर्शन सूक्त विश्वमंगल रूप है । यह कोई पंथ नहीं, सम्प्रदाय नहीं, अपितु जन-जन का जीवन सूत्र है । आइए ! हम सब मिलकर अनेकान्त - दर्शन की शीतल छाया में आएँ, और विश्व मंगल के रूप में प्रामाणिकता के साथ एकत्व की दिशा में गतिशील होते हुए, उद्घोष करें
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अनेकान्तो विजयतेतराम
मार्च अप्रैल १९८८
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