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६. बड़ों की आज्ञा को अनसुनी करना अशिष्टता है । १९
७. अपने से महत्तरों को 'तू' या 'तुम' आदि तुच्छ शब्दों से सम्बोधित नहीं करना चाहिए । २२
८. अपने गुरुजनों की बातों को बीच में काटना अनुचित है । २९
९. गुरुजनों के आसन आदि पर बैठना, सोना, खड़ा होना असभ्यता
जैन-धर्म सर्वाधिक कर्मवाद को महत्त्व देता है । कर्म ही बन्धन है एवं संसार है | संक्षिप्त रूप से परिगणित किए गए ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सर्वाधिक भयंकर है । मूलत: मोहनीय कर्म ही बन्धक-कर्मों का अग्रगन्ता उग्र सेनापति है । इसी सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर आध्यात्मिक विकास की यात्रा में मोह-कर्म के उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय की साधना वर्णित की गई है । दशाश्रुतस्कंध सूत्र में कहा कहा गया है -
सव्वे कम्मा खयं जन्ति, मोहणिज्जे वयं गए ।
-एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर सभी कर्म स्वतः क्षीण हो जाते
तीव्रतम मोह-कर्म को महामोहनीय कर्म से भी अभिहित किया गया है-महामोहं पकुव्बइ । वैदिक-साहित्य के पद्मपुराण आदि अनेक पुराणों में धर्म परायण जनता को दिग् भ्रान्त करने वाले एक धूर्त महामोह नामक असुर का भी उल्लेख है | अत: शुद्ध शिष्टाचार के हेतु मोह कर्म से सम्बन्धित दुराचरणों से जागृत साधक को सर्वथा दूर रहना चाहिए ।
अस्तु, हम यहाँ समवायांग और दशाश्रुतस्कंध सूत्र द्वय के आधार पर अशिष्टाचार से संबंधित मोहकर्म के बन्धक हेतुओं का भावार्थ संक्षिप्त रूप से वर्णन कर देना प्रसंगोचित समझते हैं ।
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