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अह पंचहि ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई ।
भ्भा, कोहा, पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य ।।
उत्तरा. ११,३
- अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य ये पाँच बातें ऐसी हैं, जिनके फलस्वरूप विद्यार्थी समुचित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता ।
अह अट्ठहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले ति बुच्चई | अहस्सिरे सया दन्ते, न य मम्म मुदाहरे || नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ||
- उत्तरा ११, ४-५
जो अर्थहीन अयोग्य हँसी मजाक आदि नहीं करता, जो सदा शान्त रहता है, जो किसी की गुप्त मर्म-भेदक बातें इधर-उधर कहता नहीं फिरता, जो सदाचार से रहित नहीं है, जो दुराचरण के दोषों से कलंकित नहीं है, जो रस- लोलुप अर्थात् जिह्वा का गुलाम- चटोरा नहीं है, जो अक्रोधन - क्षमाशील एवं सत्यानुरक्त होता है, वही मनुष्य यथार्थतः शिक्षाशील होता है ।
भोच्चा पेच्चा सुहं सुवइ, पावसमणे त्ति वुच्चई । - उत्तरा. १७,३
- जो कर्तव्य - विमुख साधक, खूब अच्छी तरह खा-पी कर आराम से सोया पड़ा रहता है, वह पाप श्रमण है ।
उत्तराध्ययन सूत्र जीवन-निर्माण की दृष्टि से एक महान धर्म सूत्र एवं नीति - शास्त्र है | विस्तार में न जाकर मैंने यहाँ संक्षेप में ही कुछ उद्धरण उपस्थित किए हैं । इनका भी यदि जिज्ञासाशील अन्तर्मन के द्वारा यथोचित चिन्तन-मनन किया जाए, तो व्यक्ति बहुत कुछ अभीष्ट उच्चता प्राप्त कर सकता
है ।
दशवैकालिक भी जैनागम साहित्य में एक सुप्रसिद्ध आगम है । उसमें शिष्टाचार के अनेक दिव्य सूत्र समुपलब्ध हैं । मैं विस्तार में न जाकर, संक्षेप में ही कुछ सूक्त उपस्थित करूँगा
पिट्ठिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ।
दशवै. ८,४७
- जीवन की पवित्रता के लिए आवश्यक है कि किसी भी व्यक्ति की निन्दा - बुराई न करें । किसी की पीठ पीछे निन्दा करना पीठ का मांस खाने जैसा
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