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" संभावितस्य चाकीर्तिर्, मरणादतिरिच्यते ।"
अधिक विस्तार में कहाँ तक जाऊँ ? प्रसंगोचित, जो कहना था, वह काफी कह दिया गया है । बुद्धिमान पाठकों को मालूम होना चाहिए कि मैं वृद्धावस्था में हूँ और साथ ही अस्वस्थता की स्थिति में भी । अत: यह प्रस्तुत लेख काष्ठ शय्या ( तख्त) पर लेटे हुए लिख रहा हूँ । इस पर से समझा जा सकता है कि मेरे हृदय की पीड़ा किस सीमा तक है । अत: अन्त में मेरा यही विनम्र भाव से कहना है कि यह दु:खद समय आपकी मानवता की परीक्षा का समय है | आपके धर्म और दर्शनों की यथार्थता के प्रति एक स्पष्ट चुनौति है । मनुष्य का साम्प्रदायिक रूप से कोई भी धर्म हो सकता है, किन्तु मूल धर्म मानवता है और वह है उदात्त एवं उदार जनकल्याण रूप भावना की ज्योति में प्रकाशमान सेवा-धर्म । प्राकृत वाङ्मय की इस समुज्ज्वल सूक्ति को बराबर स्मृति में रखिए
" सेवा पहाणो हि मनुस्स धम्मो " -मनुष्य का धर्म सेवा प्रधान है ।
अक्टूबर १९८७
(४७३)
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