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माया महाठगनी
सन्त कबीर ने एक बार कहा था
"
माया महाठगनी, हम जानी !
कबीर की यह लोगों को ठगनेवाली ठगनी माया कौन थी ? यह तो, वे ही जाने । परन्तु माया का सुप्रसिद्ध अर्थ एवं भावार्थ है - छल, कपट, दम्भ, धोखा, फरेब एवं प्रपंच आदि -आदि । मन में कुछ और छिपाए रखना और बाहर में कुछ और अभिव्यक्त करना - इस प्रकार भद्र लोगों की आँखों में धूल झोंकना है माया । बहुरूपिये और मजाकिये बालक मुखौटा लगा लेते हैं-कभी शेर आदि जानवर का, तो कभी किसी भूत-प्रेत आदि का । इसी तरह कुछ लोग हैं, जो अन्दर में सियार हैं और बाहर में महान सिंह का मुखौटा लगाए रहते हैं वे अन्दर में राक्षस हैं और बाहर में वरदानी किसी पवित्र देवता का मुखौटा लगाए हुए हैं । जीवन इस प्रकार द्वैत की स्थिति में खण्ड-खण्ड होता जाता है, महाठगनी माया के द्वारा।
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माया, वैसे तो मानव के साथ प्रायः आदि काल से ही जुड़ी आ रही है, किन्तु इधर माया ने अपना छलना का माया जाल काफी दूर-दूर तक फैला रखा है । परिवार, समाज, राष्ट्र, धर्म आदि दूर-दूर क्षेत्रों में माया की - विद्या चल रही है । सब कोई एक-दूसरे को ठगने में लगे हुए हैं । माया में से ही असत्य का प्रसार हो रहा है, जिससे हम कोई भी सत्ता पक्ष हो या
छल
,
प्रतिपक्ष सर्वत्र एक-दूसरे पर मिथ्या आरोप लगाने के कुचक्र में हर्षोन्मत्त हैं ।
सर्व-साधारण जनता सच और झूठ में ठीक तरह कोई भेद-रेखा ही नहीं अंकित कर
पाती ।
प्राचीन काल में महात्मा और दुरात्मा की एक भेद-रेखा अंकित की
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