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और इधर बाबरी मस्जिद आदि के नाम पर हजारों निरपराध, बेगुनाह बाल, वृद्ध, स्त्री-पुरुषों का खून बहा दिया गया है और बहाया जा रहा है । कोई पूछे इन्हें - मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारा आदि के रूप में एकत्र ईंटों तथा पत्यरों का गौरव तथा मूल्य अधिक है या इन्सान के खून का ?
नदी के जल के बटवारे के विवाद में परस्पर युद्ध के लिए सन्नद्ध हुई दो क्षत्रिय जातियों के बीच में तथागत बुद्ध आ खड़े होते हैं और पूछते हैं-तुम परस्पर बन्धु-जन हो, धरती माँ के एक ही जैसे पुत्र हो, अतः प्रश्न है मेरा कि मनुष्य के खून का मूल्य अधिक है या इस नदी के जल का ? युद्धोन्माद के क्षणमें भी उन क्षत्रियों की मानवता जागृत थी, अत: सबने एक स्वर से कहा- भन्ते! मनुष्य के रक्त का मूल्य अधिक है । मूल्य क्या ? वह तो अनमोल है | यह उत्तर पाते ही अहिंसा एवं करुणा के देवता बुद्ध ने कहा यदि ऐसा है, तो फिर पानी के लिए यह व्यर्थ का युद्ध क्यों ? रक्तपात क्यों ? नदी जल का उचित बटवारा करो, कम या ज्यादा के विकल्प में मत पड़ो और सब शान्ति और प्रेम के साथ अपने-अपने घर जाओ । ऐसा ही हुआ | क्या यह बुद्ध का उपदेश आज ईंट-पत्थरों के विवाद को समाधान नहीं दे सकता ? दे सकता है, यदि मानव मानवता की तुला पर अपने कर्तव्यों का उचित मूल्य निर्धारित करे ।
ये ईंट और पत्थरों के बने मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा आदि धर्म-स्थान वस्तुतः देवालय नहीं हैं । एक ओर तो ईश्वर और खुदा को सर्वव्यापी एवं साबात्मा कहा जा रहा है और दूसरी ओर उसे मन्दिरों-मस्जिदों आदि की क्षुद्र दीवारों के घेरों में बन्द किया जाता है । यह कितना तर्कहीन विरोधाभास है | विरोधाभास क्या, साक्षात् नग्न विरोध ही है। हमारे पूर्वज सत्य-द्रष्टा ऋषियों ने कहा था- “ देहो देवालय प्रोक्तः ।" प्राणी का यह देह ही देवालय है | खेद है, कि ये साक्षात् जीवित देवालय गिराए जा रहे हैं और गिराए जा रहे हैं धर्म, मजहब और उनके अधिष्ठाता ईश्वर, खुदा तथा अपने-अपने तथाकथित धर्म गुरुखों के नाम पर | कितनी विचित्र मूढ़ता है । किसी ने कभी गाया था, और इस प्रश्न का उत्तर दिया था- भगवान कहाँ है ? वे उदात्त पंक्तियाँ अंधकार में ज्योति किरण के रूप में हैं
"मन्दिर में नहीं, मस्जिद में नहीं, जहाँ याद करो भगवान वहीं"
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