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आज अपेक्षा है धर्म के यथार्थ उद्बोधन की
विराट मानव जाति के श्रीमुख से उद्घोषित लक्ष लक्षाधिक शब्दों में धर्मशब्द पवित्रता के सर्वोपरि शिखर पर स्थित रहा है । धर्म, मानव जाति के पतन की ओर अधोमुख होते हुए जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाता है । पतन से अभ्युत्थान की ओर उन्मुख करता है । धर्म का शब्दार्थ ही है- जो प्रजा को धारण करता है, वह धर्म है " धर्मो धारयते प्रजाः । "
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आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- धर्म, वह है, जो साधक व्यक्ति को सर्व मंगल सर्वोत्तम सुख में प्रतिष्ठित करता है- यो धर्त्यत्तमे सुखे !" दीर्घाति दीर्घ काल तक धर्म की ये महान फलश्रुति सुरक्षित रही है, किन्तु आज क्या हो रहा है, धर्म के पवित्र नाम पर ? वह कुछ ऐसा हो रहा है कि धर्म शब्द का प्रयोग करते हुए भी प्रबुद्ध मनीषी जनों के अन्तर्मन संकोच से भर जाते हैं । मात्र संकोच ही नहीं, उनकी जागृत चेतना को लज्जित भी होना पड़ रहा
है
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समाचार पत्रों में आये दिन पढ़ते हैं कि एक दिन गुजरात, अहमदाबाद, बड़ौदा धर्म की आग में जल रहा है, तो दूसरे दिन मेरठ, दिल्ली और मुरादाबाद । अन्य स्थानों की तो गणना ही क्या ? निर्दोष इन्सानों का खून धरती माँ के पवित्रतम वक्ष पर इस तरह बह रहा है कि मानों यह देश इन्सानों का नहीं, अपितु शैतानों एवं राक्षसों का है । हिन्दू, मुसलमान या सिख आदि धर्म के अहं में कहीं पर हर किसी आदमी को कहीं भी छुरा भौंक दिया जाता है और कहीं बन्दूक एवं पिस्तौल की गोलियों से भुन दिया जाता है । देखा नहीं जाता, कि सम्मुखस्थ व्यक्ति बालक है, युवा है, वृद्ध है या माँ, बहन आदि के रूप में अवतरित कोई भद्र महिला है । मारने का और कोई लक्ष्य नहीं है । बस, एक ही लक्ष्य है- धर्म की भिन्नता । देश की लाखों, करोडों, अरबों की
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