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के लिए मचलते रहते हैं, वे चिदाकाश में भीख मांगने के स्वप्न नहीं देखेंगे, जब भी देखेंगे दिव्य ज्योतिर्मय महत्ता के स्वप्न देखेंगे ।
इस दृष्टि से अपेक्षा है, हम महान परम्पराओं को आगे बढ़ाएँ । स्थानकवासी समाज में सर्व प्रथम आचार्य श्री अमोलकऋषिजी म. ने शास्त्र छपवाये, तब समाज में हाय-तोबा मच गई । आज क्या हो रहा है? तथाकथित उत्कृष्टता की बात करने वाले वे ही साधु-साध्वी आगम, प्रवचन, निबन्ध एवं ग्रन्थ तो छपवा ही रहे हैं, परन्तु साधारण तुकबन्दियों एवं इधर-उधर की पुस्तकों से बटोरे विचारों को भी अपने नाम से छपवाते जा रहे हैं । कुछ साधु-साध्वी, जो स्वयं लिखना नहीं जानते, विद्वानों से लिखवा कर अपने नाम से छपवाते हैं । नाम की भूख अधिक बढ़ती जा रही है ।
इसी तरह ज्योतिर्धर आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज ने राजस्थान से महाराष्ट्र में जाकर अपने शिष्यों को संस्कृत के विद्वानों से संस्कृत का अध्ययन कराया, तब क्या कम आलोचना हुई थी उस महान आचार्य की? जो पहल करता है, उसे सुनना-सहना पड़ता ही है | पर, वह विकास करता है, ऊपर उठता है
और समाज के लिए विकास के द्वार खोलता है । उसके लिए उसे लीक से हटकर चलना ही पड़ता है | बँधी-बँधाई अनुपयोगी एवं मृत हुई परम्पराओं को तोडना ही पड़ता है इसमें अपेक्षा है सत्-साहस की -
"साहसो हि श्रियो मूलम्"
सुविचारित साहस ही जब क्रियान्वित होता है, तो समाज, राष्ट्र एवं धर्म - परम्पराओं के लिए चमत्कारी ऐश्वर्य के द्वार खोल देता है ।
मार्च-अप्रैल १९८७
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