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________________ और दर्शनों की परम्पराएँ भी सहस्राधिक जल-स्रोतों की तरह विभिन्न धाराओं में प्रवाहित हैं । यहाँ अनेक धर्म-परम्पराएँ, वेश-भूषा, पूजा-अर्चना, मान्यता आदि के रूप में बाहर में एक-दूसरे से बिल्कुल मेल नहीं खाती हैं | कितनी विचित्र बात है कि कुछ परम्पराएँ कर्म-काण्ड की घोर पक्षपाती हैं, तो दूसरी ओर उसकी कट्टर विरोधी भी हैं । यहाँ तक कि आस्तिकों के साथ नास्तिक, और नास्तिकों के साथ आस्तिक, यहाँ एक वंश परम्परा में ही नहीं, एक घर में भी परस्पर बन्धु के रूप में मिल सकते हैं । यह वैविध्य भारतीय चिन्तन का वह सौन्दर्य है, जो अन्यत्र प्राय: अदृष्ट है । यह हमारे उस महान दार्शनिक चिन्तन का सुपरिणाम है, जिसने अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का साक्षात्कार किया था । और कहा था-हम एक महान वृक्ष के रूप में मूलत: एक हैं, साथ ही शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल आदि के रूप में अनेक भी हैं । किन्तु, इन अनेक रूपों में हम अपना मूल एकत्व सुरक्षित रखे हुए हैं। वृक्ष अंगी है और शाखा-प्रशाखा आदि उसके अंग हैं । उक्त अंगों में अंगी सर्वत्र निहित है । कोई भी अंग वृक्ष से कट कर अपना अलग अस्तित्व नहीं रख सकता | यदि रखेगा, तो उसका ऊलता से अध:पतन होगा ही । और, अध:पतन के साथ उसे अन्तत: शुष्क, रसहीन, जीर्ण-शीर्ण होकर मिट्टी में मिल जाना ही होगा | अत: सुनिश्चित है कि अंग-प्रत्यंग अंगी के साथ ही अपना अस्तित्व एवं उपयोगित्व बनाए रख सकते हैं । भारत की महत्ता विभिन्नताओं एवं अनेकान्ताओं में भी एकत्व-भाव में ही है । हम कितने ही विभिन्नताओं में रहें, किन्तु मूल में हमारी भारतीयता अखण्ड एवं अक्षुण्ण रहनी चाहिए | जैनाचार्य उमास्वाति का ' परस्परोपग्रहत्व' का महान सह अस्तित्व का सिद्धान्त किसी रूप में खण्डित न होना चाहिए । अनेकान्त का यह अर्थ नहीं कि हम खण्ड-खण्ड होकर इधर-उधर व्यर्थ बिखर जाएँ । अनेकान्त हमारा सौन्दर्य है ! और यह सौन्दर्य तभी है, जबकि हम अनेकता में मूलभूत एकता के अस्तित्व से जुड़े रहें । एकत्व एवं अखण्डत्व की भावना वैसे तो चिर-काल से अपेक्षित रही है, किन्तु आज तो उसकी सर्वाधिक अपेक्षा है । क्योंकि आज कुछ विदेशी तत्वों के बहकावे में आकर कुछ विचार दुर्बल लोग भारत से अलग होकर अपने अस्तित्व का दुःस्वप्न देखने लगे हैं । खेद है, वे अपने पुरातन गौरव एवं महत्त्व पर अपनी शुद्ध दृष्टि नहीं डाल रहे हैं | क्या बात हो गई है ऐसी कि उन्हें (४२१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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