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-अत: सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर प्राणियों के रूप में ही स्थित मुझ, परमात्मा का यथायोग्य दान, मान, मित्रता आदि के रूप में सद-व्यवहार तथा समदृष्टि के द्वारा पूजन करना चाहिए ।
आप देख सकते हैं, उपर्युक्त वचन कितने उदार वचन हैं । विश्व के प्राणियों का मैत्री भावना से किया गया आदर-सत्कार, सेवा आदि ही सच्ची भगवत्पूजा है । आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । हर प्राणी जैन-दर्शन की दृष्टि से भी कारण परमात्मा है, सुप्त अर्हन्त और सिद्ध है । उसका अपमान है ।
श्रमण भगवान महावीर ने भी अपने ज्येष्ठ शिष्य गौतम से यही कहा था, अपितु इससे भी आगे की भाषा में उद्बोधन दिया था, कि मेरी पूजा, अर्चना, भक्ति करने वाले से अनाश्रित पीड़ित जनों की सेवा करने वाला व्यक्ति अधिक श्रेष्ठ भक्त है, अत: वह धन्यवाद का पात्र है - " जे गिलाणं पडियरइ से
धन्ने ।"
बौद्ध साहित्य भी करुणा से आप्लावित है । भगवान् बुद्ध तो करुणा के देवता के रूप में सर्वत: सुप्रसिद्ध ही हैं । प्राचीन ग्रन्थों में तो करुणा की महिमा का गान है ही, उत्तर काल में भी बहुत दीर्घ काल तक करुणा का अमर-गान अनुगुंजित रहा है । श्री लंका के प्रसिद्ध बौद्धाचार्य श्री धम्माराम (यक्कडुव) की महत्त्वपूर्ण पाली कृति 'भक्ति गीत में देखिए कितने मार्मिक करुण उद्गार हैं | महापण्डित राहुल सांकृत्यायन द्वारा किए गए हिन्दी अनुवाद का कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है | एक करुणामूर्ति माँ उद्बोधन कर रही है
"पुत्र, क्यों किसी को दु:ख दे रहा है रे ! कण्टक, गिलहरी अथवा बब्बू किसी की भी तू हिंसा मत कर ।
छोटे-से प्राणी को भी पुत्र, जानते-देखते तू न मार । अन्तत: मक्खी, मच्छर या खटमल को भी न सता ।
न ढेले से, न काष्ठ-खण्ड से, न सलाई से, न हाथ से ही किसी भी चौपाये तथा पक्षी आदि पर तू मत प्रहार कर ।
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