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________________ दु:खी हृदय के धूल उड़ते मरूस्थल में दया का अमृत निर्झर बहाना होगा । यही बात है, कि कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः प्रत्येक धर्म के महापुरुषों ने अहिंसा के साथ अनुकम्पा का मार्मिक उपदेश दिया है । जैन-शासन तो इसमें अग्रणी है ही, अन्य परम्पराएँ भी कम अनुकम्पावादी नहीं हैं । श्रीमद् भागवत में भगवान् विष्णु तो अनाथों को, पीड़ितों को अपना शरीर ही बताते हैं और कहते हैं कि मैं अनाथ असहाय प्राणियों के शरीर में रहता हूँ, वह शरीर मेरा ही है | अत: जो दु:ख-दर्द में उनकी सेवा करते हैं, वे मेरी ही सेवा करते हैं । भागवत के तृतीय स्कन्ध में भगवत्स्वरूप महर्षि कपिल, श्री हरि के शब्दों में अपनी पूज्य माता देवहूति से कहते हैं अहं सर्वभूतेषु, भूतात्माऽवस्थितः सदा । तमवज्ञाम मां मर्त्यः, कुरुतेऽर्चा विडम्बनम् ।। २९, २१ ।। -मैं आत्मस्वरूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ, इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा दिखावे का स्वाँग मात्र है । द्विषत: परकाये मां, मानिनो भिन्नदर्शिनः । भूतेषु बद्धवैरस्य, न मनः शान्तिमृच्छति ।। २९,२३ ।। -जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीर में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल सकती । आत्मनश्च सपरस्याऽपि, य: करोत्यन्तरोदरम् । तस्य भिन्नदृशो मृत्युर्, विदधे भयमुल्बणम् ।। २९,२६।। -जो व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के बीच थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शी को मृत्यु महान उग्र भय उपस्थित करती है | अथ मां सर्वभूतेषु, भूतात्मानं कृतालयम् ।। अर्हयेद् दान - मानाभ्यां, मैत्र्याऽभिन्नेन चक्षुषा ।।२९,२७|| (२६७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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