________________
छटपटाते हुए मारना, उनका अंग-अंग काटना अपने में कितना भयावह दृश्य है? फिर भी मानव, अपनी मानवता को भूल कर यह सब करने लगा । निर्दयता ने हृदय मन्दिर में प्रवेश किया, तो धीरे-धीरे मनुष्य, मनुष्य न रह कर भयंकर पिशाच ही बन गया है | बान्ध में कहीं दराद पड़ जाती है, तो एक दिन वह टूट कर ही रहता है और चारों ओर सर्वनाश का दृश्य उपस्थित कर देता है । यही दशा मांसाहार ने की है । निर्दयता और क्रूरता ने बढ़ते-बढ़ते मानव मन के आकाश को सघन काली घटाओं से इतना आच्छन्न कर लिया है, कि विवेक-ज्योति की एक हल्की-सी किरण भी उसके हृदय में कहीं दिखाई नहीं देती है । जलचर, भूचर, नभचर कोई भी प्राणि इसकी उदराग्नि से बच नहीं पा रहा है । भगवान महावीर ने कहा था - " अग्गीविवा सव्व भक्खी भविता ।" अर्थात् मनुष्य दावानल की तरह सर्वभक्षी हो गया है | - आहार शुद्धि से ही सत्त्व-शुद्धि अर्थात् मन और बुद्धि की शुद्धि होती है ओर सत्त्व-शुद्धि होने पर कर्तव्य की शुद्ध-स्मृति होती है
“आहार शुद्धौ सत्त्व शुद्धि, सत्त्व शुद्धौ ध्रुवात् स्मृति: "
प्रस्तुत लेख में अहिंसा के विघातक हिंसा के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है । यह उल्लेख समुद्र में बून्द के समान है। फिर भी भगवती अहिंसा के लिए हिंसा से मुक्त होने की दिशा के रूप में ये कुछ संकेत हैं। आशा है, जिनमें कुछ मानवता शेष रह गई है, वे इस पर गंभीरता से विचार-चिंतन करेंगे ।
अक्टूबर १९८६
(४१८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org