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विश्व शान्ति का एक मात्र मार्ग : अहिंसा
अहिंसा, आध्यात्मिक-चेतना का वह अमोघ अमृत-स्रोत है, जिसकी तुलना या उपमा न कहीं धरती पर है ओर न कहीं अम्बर पर है । आदमी, तभी आदमी बनता है सही अर्थ में, जब कि उसके हृदय-हिमगिरि से अहिंसा-गंगा की कोई-न-कोई धारा फूट पड़ती है ।
तन का क्या है ? वह सुन्दर या असुन्दर जैसा भी है, चमड़े की आँखें ही उसका मूल्यांकन करती हैं । किन्तु, असली इन्सान तन में नहीं, मन में रहता है । अत: उसके सुन्दर और असुन्दर रूप का मूल्यांकन विवेक एवं विचार की दिव्य आँखें ही कर सकती हैं ।
मनुष्य बाहर में मनुष्य का रूप-आकार धारण कर के अन्दर में दैत्य भी हो सकता है, और देव भी । पशु भी हो सकता है और मनुष्य भी । इतना ही नहीं, विश्व-चेतना के उच्चतम शिखर पर पहुंच कर वह परमात्मा एवं ईश्वर भी हो सकता है । और यह तभी हो सकता है, जब उसका हृदय हिंसा की विषाक्त-चेतना से मुक्त होकर अहिंसा की जन-कल्याणी अमृत-चेतना से सर्वतोमुखी रूप में आप्लावित होता है |
मानव और पशु के जीवन की भेदक-रेखा बाह्य दृष्टि के क्षेत्र में एक-दो क्या, अनेक हो सकती हैं | किन्तु, अन्तर्-दृष्टि से देखा जाए, तो मात्र एक ही रेखा है । और, वह है अहिंसा । अहिंसा के अभाव में मनुष्य और हिंसक वन्य-जन्तुओं में देहवृत्ति के अतिरिक्त, अन्य कोई भेदक-रेखा न कभी थी
और न कभी होगी | अत: मैं अहिंसा और मानवता को पर्यायवाची शब्द मानता हूँ । अहिंसा ही वास्तव में मानवता है ।
मनुष्य कभी अपने पिण्ड में ही सीमित था । उसके सुख-दुःख की अनुभूतियाँ केवल उसके पिण्ड तक ही परिछिन्न थीं । कितना भव्य एवं
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