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यह होता है कि ये दिखावे के धन्ना सेठ कर्ज चुकाते-चुकाते एक दिन सड़क पर आ खड़े होते हैं, दीन-हीन दरिद्र दशा में | कुछ लोग तो अपने को संभाल नहीं पाते हैं, तो अन्त में धैर्य खोकर आत्म-हत्या तक की स्थिति में भी पहुँच जाते
कुछ महानुभाव नर और नारी, रूप के अहं से ग्रस्त हैं । अपने सौंदर्य के प्रदर्शन के लिए अनेक प्रकार के धर्म-भावना से वर्जित शृंगार प्रसाधनों का प्रयोग करते हैं । और, वस्त्रालंकार की बेतुकी सजावटों से दूसरे के मन में ईर्ष्या का भाव जगाते हुए अकड़ खाँ बन कर घूमते हैं कि हम भी कुछ हैं ! उन्हें पता नहीं, एक दिन वह भी स्थिति आ सकती है कि रोग का एक नगण्य कीटाणु भी उनके सौन्दर्य की चमक को चकनाचूर कर उन्हें घृणित एवं अदर्शनीय स्थिति में पहुंचा सकता है । जैन-इतिहास का सनतकुमार चक्रवर्ती स्वर्ग के देवों से भी अधिक सौन्दर्य के शिखर पर पहुँचा हुआ था, परन्तु कुछ ही क्षणों में कुष्टादि रोगों से ग्रस्त होकर क्या से, क्या हो गया था ? और, भी अनेक उदाहरण हैं । अधिक गणना से क्या है ? एक उदाहरण भी पर्याप्त है, यदि कोई समयोचित बोध ले सके तो ।
बचपन से निकल कर मनुष्य जब यौवन की दहलीज पर पहुँचता है, तो अपने शारीरिक बल का नशा इतना चढ़ जाता है कि कुछ पूछो नहीं । अपने को भीम और अर्जुन से कहीं अधिक ही समझने लगता है | शक्ति से बढ़कर इतना भार उठा लेता है कि कभी-कभी जीवन भर के लिए अपंग हो जाता है | मैं एक बार एक साधारण-से छोटे गाँव में ठहरा हुआ था | सामने एक छोटा-सा अखाड़ा था, जिसमें एक बहुत बड़ा भारी पत्थर का मुगदर पड़ा हुआ था । युवक आते और अपना बल तौलने के लिए उसे उठाने का प्रयत्न करते और कुछ उठा भी लेते थे । इतने में एक कमजोर-सा युवक आया और बोला कि लो, इसे तो मैं मिनटों में उठा लेता हूँ । मना करने पर भी न माना और परिणाम यह हुआ कि रीढ़ की हड्डी चटक गई । अब चला रुदन का चक्र । मैं देखता रहा, यह कितना अज्ञान है । इसे अपनी सीमा का कुछ होश नहीं है ।
जैन-दर्शन में तो त्याग और तप के लिए भी कहा गया है- अपनी शक्ति से अधिक कुछ न करो । आचार्य, उमास्वाति का सूत्र है "शक्तितस्त्यागतपसी ।" किन्तु कुछ विवेकहीन व्यक्ति अपनी शक्ति से अधिक
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