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जरा अपने को तौल तो लीजिए
भू-मण्डल पर मानव एक महान सर्वोत्तम प्राणी है । पुरातन काल से उसकी महत्ता के गीत गाए गए हैं, जो आज भी सभी धर्म-शास्त्रों एवं ग्रन्थों में अनुगुंजित हैं -
"नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् "
किन्तु, उसकी एक बहुत बड़ी दुर्बलता भी है, वह अपने यथार्थ की सीमा से बहुत आगे बढ़कर अपने को प्रदर्शित करता है। कभी-कभी तो छोटे मुँह इतनी बड़ी-बड़ी बातें करता है कि हँसी आने लगती है। क्षुद्र से महान होना अच्छा है, किन्तु वह महान बने तो सही | आश्चर्य तो तब होता है, जब एक बूँद सागर होने का अहंकार करने लगती है, एक नन्हा सा अग्नि-स्फुलिंग सूर्य होने का दावा करने लगता है, और एक मशक गरुड होने का दंभ भरने लगता है । कितनी हास्यास्पद स्थिति है यह ।
आज के युग की यही बड़ी समस्या है कि मनुष्य अपनी शक्ति की दृष्टि से बहुत क्षुद्र है, फिर भी वह व्यर्थ के अहंकार से ग्रस्त होकर इतना लम्बा-चौड़ा बनकर चलता है कि सड़क संकरी होने लगती है । अपने को गजराज समझता है और दूसरों को मक्खी-मच्छर, कीड़े-मकोड़े | हमारे प्राचीन आचार्यों ने उसे शिक्षा दी थी -- मानव को निरन्तर सोच-विचार करने की, कि मैं क्या हूँ और मेरी क्या शक्ति है ? मैं उस शक्ति से क्या-कुछ कर सकता हूँ ? शक्ति से बढ़ कर आगे कदम बढ़ाना अपने को विनष्ट करने के सिवा और कुछ नहीं है ।
मनुष्य के पास धन, एक अल्प सीमा में है । किन्तु, विवाह आदि प्रसंगों पर आप देखते हैं कि कुछ लोग कितना भीषण प्रदर्शन करते हैं । इधर-उधर से कर्ज लेकर भी अपनी अहंता का टूटा ढोल पीटते हैं । परिणाम
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