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सिद्धान्त का सम्यक् परिबोध न हो, वह जिज्ञासु श्रोताओं तथा पर-पक्ष के वादियों के सम्मुख अपने प्रतिपाद्य पक्ष का कैसे समर्थन कर सकता है? स्व-समय के सम्यक् परिज्ञान के अभाव में गरिमा के स्थान में लघुता ही प्रतिफलित होगी ।
३२. पर-समय विद् : आचार्य को पर-मत का भी प्रामाणिक ज्ञान अपेक्षित है । पर-पक्ष का बोध न रखने वाला विद्वान खण्डन-मण्डन के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंसा रह जाता है । उसमें से निकलना सर्वथा असंभव है । वाद-विद्या के लिए पर-समय का ज्ञान आवश्यक है । उक्त पर-समय-विद् मनीषी को ही वाद में विजयश्री हस्तगत होती है ।
३३. गम्भीर : आचार्य यदि गम्भीर नहीं है, इधर-उधर की समस्याओं में यदि वह विक्षुब्ध हो जाता है, तो संघ का संचालन कैसे कर सकता है ? उसे तो प्रशान्त महासागर के समान क्षोभ रहित होना चाहिए | गंभीर न रहनेवाला व्यक्ति क्षोभ के वातावरण में जल्दी उखड़ जाता है । फल-स्वरूप स्वयं को और संघ को जनता में उपहासास्पद बना देता है |
३४ दीप्तिमान : आचार्य को दीप्तिमान होना आवश्यक है । दीप्तिमान तेजस्वी आचार्य का व्यक्तित्व ऐसा होता है कि उसके दर्शन मात्र से विरोधि-से-विरोधि व्यक्ति भी सहसा हतप्रभ हो जाता है और अन्तत: आचार्यश्री के चरणों में श्रद्धावनत हो जाता है | भगवान महावीर के प्रथम दर्शन में ही गौतम उनके दीप्तिमान व्यक्तित्व से सहसा विस्मय विमुग्ध हो गए थे । इसी प्रसंग में आचार्यश्री जिनदास ने " ओयंसि तेयंसि वच्चंसि " कहा है और कहा है " सूरमिव दित्ततेयं । "
३५. शिव : सन्त-जन शिवत्व भावना के केन्द्र होते हैं । आचार्य को तो विशेष रूप से ही शिव अर्थात् जन-कल्याणकारी होना चाहिए। वह जहाँ भी, जिस प्रदेश में भी जाए, सहज-भाव से आनन्द-मंगल की अमृत-वर्षा करता जाए । जहाँ भी कलह और विग्रह की स्थिति हो, उसे शान्त करे और सबको परस्पर स्नेह सूत्र में आबद्ध करे | आचार्य का काम जोड़ने का है, तोड़ने का नहीं । वह आग को बुझाने वाला है, आग को लगाने वाला नहीं । बिना किसी भेद-भाव के उक्त सर्व मंगलकारी शिवत्व भाव को एक राजस्थानी मनीषी ने अपनी कविता में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है -
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