________________
उपर्युक्त उदाहरण एवं हेतु आदि चतुष्टयी का परिज्ञान तत्त्वोपदेशक आचार्य के लिए महत्त्वपूर्ण है | केवल आगम के शब्दों का उल्लेख करने मात्र से प्रतिपाद्य की सिद्धि नहीं हो सकती । तर्क से ही धर्म की और कर्म की साधना को सिद्ध किया जा सकता है । यदि केवल आगम को ही महत्ता दी जाए, तो प्रत्येक धर्म-परम्परा के पास अपने-अपने आगम हैं । अत: किसी एक परम्परा के आगम को ही शब्द मात्र से मान्य किया जा सकता है ? आगम को भी अन्तत: तर्क की कसौटी पर परखना ही होगा | इस सन्दर्भ में आचार्य हरीभद्र ने उक्त चतुष्ट्यी का उल्लेख करते हुए दशवकालिक टीका के प्रथम अध्ययन में स्पष्ट उद्घोषित किया है
"उदाहरणहेतुकारणनयनिपुणस्तद् गम्यान् भावान् सम्यक् परूपयति नागम - मात्रमेव । "
आचार्यश्री हरीभद्र का ललित विस्तरा ग्रन्थ जैन-दार्शनिक परम्परा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है | उसमें आचार्यश्री ने सदोष एवं निर्दोष के सम्यक् परिबोध के लिए विचार-चर्चा को महत्त्वपूर्ण माना है और सही विचार वही होता है, जो पूर्णतया युक्तिसंगत हो -
" न च दुष्टेतरावगमो विचारमन्तरेण, विचारश्च युक्तिगर्भ इत्यालोचनीयमेतत् ।"
३०. ग्राहणा-कुशल : आचार्य प्रवचन का मुख्य व्याख्याता होता है । व्याख्याता का आवश्यक गुण है, वह ग्राहणा-कुशल हो । अपने प्रतिपाद्य विषय को जो श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में ठीक तरह उतार सके, अपने विषय को युक्ति-युक्त रूप से ग्रहण करा सके, वह व्याख्याता ग्राहणा-कुशल होता है । भाषण, भाषण है, भषण नहीं । यों ही इधर-उधर की विसंगतियों में उलझते हुए बोलना व्याख्याता का एक महान दोष है । अत: व्याख्याता को उक्त दोष से मुक्त रहना चाहिए ।
३१. स्व-समयविद् : समय का अर्थ सिद्धान्त है । आचार्य को स्व-समय का अर्थात् अपने सिद्धान्त का परिज्ञाता होना आवश्यक है । जिसे अपने
(४०५)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org