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________________ " संगामसीसे इव नागराया" अर्थात् जैसे गजराज संग्राम में शस्त्रों के घात-प्रतिघात को सहता हुआ निरन्तर आगे बढ़ता जाता है, पीछे नहीं हटता है इसी प्रकार आचार्य भी दुराग्रही अज्ञानी लोगों की ओर से होने वाली आलोचना-प्रत्यालोचना, निन्दा एवं अपमान आदि को सहन करता हुआ विजेता के रूप में सत्य के अग्नि-पथ पर निरंतर आगे ही बढ़ता जाता है । न कायर बन कर पीछे लौटता है और न सियार की भाँति इधर-उधर संरक्षण की झाड़ियों में छिप कर बैठ जाता है । वीर्यशाली महान आचार्य ही संकट काल में यथायोग्य निर्णय लेते हैं और संघ का यथोचित संरक्षण करते हैं । २५. सूत्रार्थ तदुभय विधिज्ञ : सूत्र का अभिप्राय है- शब्द पाठ और अर्थ का अभिप्राय है- सूत्र का भाव एवं अभिप्राय अर्थात् तात्पर्य । सूत्र और अर्थ-दोनों से सम्बन्धित चतुर्भंगी सिद्ध होती है- १. सूत्र का ज्ञाता है, अर्थ का ज्ञाता नहीं, २. अर्थ का ज्ञाता है, सूत्र का ज्ञाता नहीं, ३. सूत्र और अर्थ दोनों का ज्ञाता है और ४. सूत्र और अर्थ दोनों का ही ज्ञाता नहीं । चतुर्थ भंग शून्य है | प्रस्तुत में इसका कोई प्रयोजन नहीं है । यहाँ प्रस्तुत में सूत्र-अर्थ तदुभय का प्रयोजन है | आचार्य को सूत्र और अर्थ दोनों का ही सम्यक्तया परिज्ञान होना चाहिए । केवल सूत्र का पाठी शब्द प्रधान होता है | बिना अर्थ अर्थात् तात्पर्य के उसका विशिष्ट तत्त्व बोध रूप कार्य अर्थात् विशिष्ट तत्त्व-ज्ञान कैसे सिद्ध हो सकता है ? और सूत्र के बिना केवल अर्थ मूलहीन वृक्ष के समान होता है, साधक के लिए | अत: सूत्र और अर्थ दोनों का यथार्थ परिज्ञान आवश्यक है । आचार्य सूत्र और अर्थ दोनों का सम्यक्-ज्ञाता होता है, तभी वह शिष्यों को सिद्धान्त का यथार्थ रहस्य समझा सकता है । सूत्र और अर्थ दोनों के यथार्थ बोध में ही ज्ञान की पूर्णता है । इसी सन्दर्भ में आर्य जिनदास महत्तर ने आचार्य के असीम ज्ञानी होने का वर्णन किया है- 'गगनमिव अपरिमित णाणं ।' इधर-उधर से एकत्रित किए गए सीमित ज्ञान से आचार्य की महत्ता नहीं है । सीमित ज्ञान के द्वारा न शिष्यों को परिबोध दिया जा सकता है और न यथावसर वाद-विद्या अर्थात् परवादियों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर अपने दर्शन का गौरव ही बढ़ा सकता है । (४०२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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