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का साक्षात् हेतु है और बाह्य तप परम्परा हेतु | बाह्य तप यदि अन्तरंग तप की प्रगति में सहायक होता है, तो वह तप है, अन्यथा मात्र देह-दण्ड है । आचार्य स्वयं तप का और उसकी विशुद्धि का आचरण करने वाला होना चाहिए । ऐसे तपोघन आचार्य से ही साधक यथायोग्य विशुद्ध तप की प्रेरणा ले सकते हैं।
२४. वीर्याचार-युत : वीर्य शब्द पुरुषार्थ, पराक्रम, उद्यम एवं उत्साह आदि का द्योतक है | इसके द्वारा ही व्यक्ति विघ्नबाधाओं को एवं कार्य-रोधक आक्रमणों को दृढ़ता के साथ सहन कर सकता है । और, आपत्तियों का निराकरण भी वीर्य के द्वारा ही हो सकता है । नीतिविद् आचार्य भतृहरि ने इस सम्बन्ध में ठीक ही कहा है -
" विघ्नै पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः ।। प्रारम्य चोत्तमजना: न परित्यजन्ति ।।"
अर्थात् वीर्यशाली धीर उत्तम पुरुष अभीष्ट कार्य को प्रारम्भ कर के बीच में नहीं छोड़ते हैं । भले ही वे कितने ही प्रत्याघातों से पीडित किए जाएँ । वीर्यशाली कभी निराश होकर कायर पुरूषों की श्रेणी में नहीं जाता है । अत: वीर्य वह महाशक्ति है, जो व्यक्ति को निरन्तर दीप्तिमान, रखती है | आचार्य जिनदास महत्तर की वीर्य शब्द की निरुक्ति इसी उदात्त भाव को प्रमाणित करती
" विराजयत्यननैव इति वीरियं " उ.चू. पृष्ठ ९६ " विशेषेण ईर्यते चेष्ट्यतेऽनेनेति वीर्यः” उ.शा.टी. ६४५
उपर्युक्त वीर्याचार के वर्णन से स्पष्ट है कि आचार्य को विशिष्ट रूप से अप्रतिहत वीर्यशाली होना चाहिए । यदि वह साहसहीन होता है, तो निन्दा-स्तुति के चक्रव्यूह में पड़ कर यथार्थ सत्य की किसी भी भाँति सुरक्षा नहीं कर सकता। वीर्य के अभाव में न वह स्वयं समस्याओं के सागर को पार कर सकता है और न साधकों को ही पार करा सकता है | पंक-निमज्जित हाथियों का गंध हस्ती जैसा महान गजराज ही उद्धार कर सकता है । वीर्याचारशाली आचार्य सत्य के पालन में एवं सत्य को यथार्थ रूप से उद्घोषित करने में कभी हतोत्साह एवं भयाकुल नहीं होता।
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