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अरहंताणं अथवा अरिहंताणं
__भाषा कोई भी हो, वह एक बहता प्रवाह है | उक्त प्रवाह में मूल शब्द शब्दान्तर में परिणत हो जाते हैं, साथ ही अर्थान्तर में भी । जनता की जिह्वा पर शब्द फिसलते जाते हैं और वे नया नया रूप ग्रहण करते जाते हैं । कालान्तर में उन शब्दों के अर्थ भी उसी अनुरूप में बदलते जाते हैं । भाषा-विज्ञान के अभ्यासियों के लिए यह कोई नई बात नहीं है | वैदिक, जैन और बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के शब्दान्तर और तदनुरूप अर्थान्तर के हजारों उदाहरण यत्र-तत्र तत्तत्-साहित्य में आज भी देखे जा सकते हैं । जैन-परम्परा के णमोक्कार सुत अर्थात् नमस्कार सूत्र महामन्त्र नमोक्कार ( नवकार ) के प्रथम शब्द के सम्बन्ध में भी ऐसा ही हुआ है । प्रथम पद के तीन रूप मिलते हैं-नमो अरहंताणं, नमो अरिहंताणं और नमो अरुहंताणं ।
भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह मात्र उच्चारण की भिन्नता है । किन्तु, इस उच्चारण भिन्नता के कारण रूपान्तरित हुए शब्दों के अर्थ भी भिन्न-भिन्न रूप से किए गए हैं ।
१. " अरहंताणं-अर्ह पूजायाम् " धातु से निष्पन्न है । जिसका अर्थ है-पूज्य, वन्दनीय एवं अभिनन्दनीय अरहंत त्रिलोक पूजित हैं | इसलिए अरहंत
२. अरिहंताणं का अर्थ किया गया है-अरि अर्थात् शत्रु, उनका हनन करनेवाला अरिहन्त होता है । 'अर' कौन ? यह प्रश्न उपस्थित होने पर ऊपर से व्याख्या की गई कि कर्म रूपी अरि अर्थात् शत्रुओं का हनन करनेवाला ।
३. अरुहंत तीसरा रूप है । उसका अर्थ किया जाता है - 'अ' अर्थात् नहीं | रुह अर्थात् जन्म । जो कर्म-बन्धन से मुक्त होने के बाद पुर्नजन्म नहीं लेते, वे अरुहन्त कहलाते हैं ।
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