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चमक उठता है । मक्खन को अग्नि पर तपाने पर उसमें जो छाछ का अंश है, वह जल जाता है और शुद्ध घी निखरता जाता है । यह दृष्टि है समत्व साधना की । समत्व ही तप है और यही धर्म है । समत्व के सिवा और कोई धर्म नहीं ।
जिस साधक के जीवन में समत्व की ज्योति प्रज्वलित हो गई, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं । नमस्कार का अर्थ सिर्फ सिर झुकाना नहीं, प्रत्युत समर्पण कर देना है । अत: देव एवं देवेन्द्र भी अपने को सर्वात्म-भाव से समर्पण कर देते हैं, उस साधक के चरणों में, जिसके अन्तर् में समत्व की ज्योति प्रज्वलित हो गई है ।
अस्तु श्रमण भगवान महावीर के दर्शन में धर्म का फल न तो देवों का सन्तुष्ट होकर भौतिक साधन देना है, न यश-कीर्ति, मान-प्रतिष्ठा की प्राप्ति है
और न स्वर्ग की प्राप्ति है । धर्म का फल है ~ कषायों का उपशान्त होना, विकारों का नाश होना, राग-द्वेष का क्षीण होना और आत्मा में अखण्ड शान्ति की अनुभूति होना | अस्तु, धर्म किसी विशेष प्रकार के क्रिया-काण्ड में नहीं, समत्व की साधना में है, कषायों की आग का उपशमन करने में है, राग-द्वेष को क्षीण करने में है।
श्री रमेश का दूसरा प्रश्न है, कि जब मानव को सर्व श्रेष्ठ प्राणी स्वीकार कर लिया, तब फिर आज जन-संख्या पर रोक क्यों लगाई जा रही है ? बढ़ती हुई आबादी की भीड़ को नियंत्रित क्यों किया जा रहा है ?
मनुष्य की श्रेष्ठता सिर्फ मानव के आकार को प्राप्त कर लेने में नहीं है । श्रेष्ठता इस मिट्टी के पुतले की नहीं है । वह है, अन्दर के इन्सान की अर्थात् मानवता की, इन्सानियत की । इस बढ़ती हुई आबादी की भीड़ को श्रेष्ठ नहीं कहा है । क्योंकि ये केवल आकार से मनुष्य हैं, परन्तु अन्दर में पशुत्व जागृत है । इसलिए मनुष्यों की भीड़ समाज एवं राष्ट्र के लिए एक विकट समस्या है और यह समस्या विकटतर बनती जा रही है । इसलिए इसे नियंत्रित करना राष्ट्र के हित में है । अस्तु, मानव की श्रेष्ठता उसके उदात्त भाव एवं उज्ज्वल जीवन के कारण है । और, वह धर्म से जागृत होता है ।
एक प्रश्न है-नरक में असंख्य सम्यक्-दृष्टि आत्माएँ हैं । किसी समय अज्ञान एवं प्रमाद के वश कोई दुष्कर्म हो गया और नरक का बन्धन पड़ गया,
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