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समान सुख-दु:ख की अनुभूति करने वाली समझकर उसे दु:ख से, कष्ट से छुटकारा दिलवाना एवं सुख-शान्ति देने का प्रयास करना, अहिंसा है | धर्म अहिंसा के दर्शन में है, प्रदर्शन में नहीं । प्रदर्शन दूसरों को तमाशा दिखाने के लिए है और दर्शन आत्मानुभूति के लिए है ।
संयम धर्म है । जीवन में वासनाओं का, कामनाओं का जो प्रवाह बह रहा है, उसमें एक असहाय तिनके की तरह बहते जाना संसार है । क्रोध आया, तो क्रोध की धारा में बह गए । अहंकार आया, माया, लोभ-लालच आया, राग-द्वेष आया और बह गए उसकी धारा में | धर्म है कषायों के, राग-द्वेष के, वासना के प्रवाह में भी अपने आपको नियंत्रित रखना । इसके साथ मान प्रतिष्ठाओं के व्यामोह में स्वयं को सँभालकर रखना है । न किसी सांसारिक लोभ या भय से, न परलोक के लोभ या भय से, प्रत्युत सहज भाव से अपने स्वभाव में स्थित रहने के लिए अपने मन को नियंत्रित रखना संयम है । किसी बाह्य क्रिया-काण्ड में उलझे रहना संयम नहीं है । संयम है, पर-भाव से, विभाव से स्वयं को हटाकर स्वभाव में स्थित होना । राग-द्वेष से हटकर वीतराग भाव से आना संयम है । संयम का अर्थ है - राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतराग-भाव की ओर बढ़ते रहना | राग असंयम है, वीतराग-भाव संयम है ।
तप धर्म है । जीवन में कष्ट आते रहते हैं, पीड़ाओं के क्षण भी आ जाते हैं । यह भी संभव है, कुछ अज्ञानी व्यक्ति उत्पीड़ित करें । उस समय ज्ञानपूर्वक समभाव में स्थित रहकर उन्हें सहन कर सको, यह तप है । तप वह ज्योतिर्मय ज्वाला है, जिसमें विकारों का मल जलकर नष्ट हो जाता है और साधक तपे हुए स्वर्ण की तरह निखर जाता है, जिस पर न तो राग-द्वेष आदि विकारों की कालिख लगती है और न जंग ही लगता है।
तप का अर्थ है - इच्छाओं पर, आकांक्षाओं प. नियंत्रण करना । इस लोक या परलोक से सम्बन्धित किसी भी तरह की आकांक्षा का नहीं होना, इच्छाओं का निरोध करना तप है | केवल उपवास, बेला, तेला, मासखमण आदि करना ही तप नहीं है । यह तो सिर्फ बाह्य तप है | तप है, अन्दर में समत्व भाव का आना | समत्व की ज्योति इतनी प्रबल हो कि विषमता का अंधकार नष्ट हो जाए, सारा मैल साफ हो जाए । जैसे स्वर्ण को तपाते जाते हैं, तो उसमें संलग्न पूरा मैल जलकर समाप्त हो जाता है और सोना अपने शुद्ध स्वरूप में
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