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________________ मिलना चाहिए | खेद है, वे धर्म - शास्त्र कहे जाने वाले ग्रन्थ भी धर्म शास्त्रों में मूर्धन्य स्थान प्राप्त किए हुए हैं । और, यदि कहीं कोई प्रबुद्ध पाठक इन वर्णनों के विरुद्ध आवाज उठाता है, तो धर्म- नाश की दुहाई दी जाने लगती है । एक बात और है, और बड़ी ही विचित्र है । यहाँ धरती पर मनुष्य को त्याग वैराग्य का उपदेश दिया जाता है । त्याग के नाम पर अनेक बोध - शून्य घोर यातनाएँ शरीर को दी जाती हैं । किंतु आज उनका फल क्या है ? जरा पुछें, तो बताया जाता है, कि इनसे परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होगी । आजकल कुछ धर्म मुक्ति नहीं मानते, उनमें एक जैन परम्परा भी है । इसका अर्थ है कि धरती पर किया गया त्याग और वैराग्य स्वर्ग में अनियन्त्रित एवं अमर्यादित सुखोपभोग पाने के लिए है । त्याग की परिणति भोग में । कितना विचित्र विरोधाभास है ? कारण और कार्य में कोई तर्क-संगत सम्बन्ध ही नहीं हो पाता है । यहाँ एक स्त्री का त्याग और वहाँ बदले में हजारों अप्सराएँ । जरा विचार किया जाए, तो कुछ सत्य समझ में आ सकता है और असत्य का परिहार किया जा सकता है । किन्तु, इसके लिए सत्साहस की अपेक्षा है और सांसारिकता से ऊपर उठ कर तर्कसंगत ज्ञानचेतना की आवश्यकता है । स्पष्ट है, जब तक स्वर्ग का प्रलोभन रहेगा, और स्वर्ग के देवताओं से कुछ पाने की आकांक्षा रहेगी, तब तक धूर्त लोगों के द्वारा देवों के नाम पर अनेक अनर्थ परम्पराएँ चलती ही रहेंगी, और बेचारे भ्रान्त लोग ठगे ही जाते रहेंगे । काली, महाकाली की पूजा होती ही रहेंगी । मूक पशु कटते ही रहेंगे । कत्लखानों का विरोध होना ही चाहिए, किन्तु इससे भी अधिक बलिदानों के विरोध की अपेक्षा है । जिनके देवता मांस खाते हैं, वे स्वयं मांस खाना कैसे छोड़ेंगे ? जिनके देवता मदिरा पीते हैं, उनके भक्त भला मदिरा पीना कैसे छोड़ सकते हैं? सत्य के लिए कुछ आहुति देनी है, तो सर्वप्रथम देवताओं के नाम पर प्रचलित दुष्कर्मों के प्रति देनी चाहिए । पूर्वकाल के अनेक महापुरुषों ने उक्त दैवी अत्याचारों का डटकर विरोध किया था । किन्तु खेद है, कि उनके शिष्य - परम्परा में असत्य का विरोध करने के लिए वह जीवन्त शक्ति नहीं रही, जो उनके बताए उपदेशों के लिए मार्ग प्रशस्त करती । मार्ग तो क्या प्रशस्त करना था, वे स्वयं ही भ्रान्ति के माया जाल में उलझती गई । स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन दिया जाने लगा और देवताओं की महिमा के गीत गाए जाने लगे । यहाँ तक कि (३६५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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